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सरोवरमें चाहे जितना कचरा हो पर एक ऐसा मणि आता हैं कि जो डालते ही सभी कचरा तलमें बैठ जाता हैं । सरोवर का पानी एकदम निर्मल बन जाता हैं । मन के सरोवरमें श्रद्धा का मणि रखो तो वह निर्मल बने बिना नहीं रहता ।
ऐसी श्रद्धा के संयोग से ही श्रेणिक चित्त की निर्मलता पा सके थे । फलतः तीर्थंकर नाम कर्म बांध सके थे ।
ऐसी निर्मलता के स्वामी को कोई चलित नहीं बना सकता । ऐसी निर्मलता बढने के बाद मेधा बढानी हैं । श्रद्धा सम्यग्दर्शन हैं तो मेधामें सम्यग्ज्ञान हैं ।
कठिन ग्रंथ को भी ग्रहण करने में पटु बुद्धि वह मेधा हैं । संक्षेपमें ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता चित्त का धर्म वह मेधा ।
निर्मल प्रज्ञा आगमोंमें रुचि धारण करती हैं, लेकिन मोहनीय से ग्रस्त मलिन प्रज्ञा आगमोंमें रुचि धारण नहीं करती । पापश्रुत पर उसे आदर होता हैं । निर्मल मेधावाले को पापश्रुत पर अवज्ञा होती हैं, गुरु-विनय और विधि पर प्रेम होता हैं । उसे ग्रहण करने का नित्य परिणाम होता हैं ।
बुद्धिमान दर्दी उत्तम औषधिमें ही रुचि धारण करता हैं उसी तरह निर्मल प्रज्ञावाला सद्ग्रंथमें ही रुचि धारण करता हैं ।
आपको सद्ग्रंथ प्रिय लगते हैं या खराब पुस्तकें प्रिय लगती हैं ? जो प्रिय लगते हो उसके उपर आपकी मेधा कैसी हैं ? पता चलेगा । सद्ग्रंथ का पठन मात्र कल्याण नहीं करता । उसके पहले आपके हृदयमें ग्रंथ के प्रति तीव्र रुचि होनी चाहिए
भगवान के दर्शन भी तो ही सफल हैं अगर वहाँ अत्यंत आदर भाव हो ।
'विमल जिन दीठां लोयण आज ।'
'अहो अहो हुँ मुजने नमुं ।' इत्यादि पंक्तियां भगवान की ओर तीव्र रुचि को प्रकट करती
(कहे कलापूर्णसूरि - ४000 sooooooooooooo00 ३११)