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________________ घटना उन्हें दिखती थी । ऐसी थी उनकी दिव्यदृष्टि ! स्वर्गवास के बाद भी बहुत घटनाएं देखने मिली हैं । आज भी हम उनकी नजरमें हैं । ३२ वर्ष होने पर भी हमारी संभाल रखते हैं, ऐसा हमें नित्य लगता रहा हैं । होनेवाली घटना स्वप्नमें आती रहती हैं I रामविजयजी से लेकर सबको उन्होंने तैयार किये । पूज्य श्री की आज्ञा से मैंने जूनागढ चातुर्मास किया । उसके बाद कीर्तिचंद्र वि. का पत्र आया : पूज्यश्री की इच्छा हैं : अब आप जल्दी आओ । मैंने विहार किया । बोटाद पहुंचते चंद्रशेखर वि. मिले । हम साथमें रुके । बोटादमें ज्येष्ठ कृ. ११ को स्वर्गवास के समाचार मिले । चंद्रशेखर वि. तो तार पढकर चीख लगाकर बेहोश हो गये । २४ घण्टे तक चंद्रशेखर वि. रोये होंगे । उसके बाद हम स्वर्गभूमि खंभात पहुंचे । मैंने कीर्तिचंद्र वि. को पूछा : पू. प्रेमसूरिजी म. ने मेरे लिए क्या कहा ? 'कर्मप्रकृतिमें उसे ( धुरंधर वि. को ) रस नहीं हैं तो इतिहासमें आगे बढें ।' आज मुझे इतिहासमें रस हैं । ऐसे निराग्रही थे पूज्य श्री ! गुरु-लाघव के अनुसार पूज्यश्री का वर्तन था । जीवनमें बहुत बांधछोड़ की हैं, उन्होंने । उनकी कृपा से ही साधारण असाधारण हुआ I उनकी कृपा हटते ही असाधारण साधारण बने । सभीमें पू. प्रेमसूरिजी की शक्ति कार्य कर रही हैं । उनकी कृपा से गृहस्थ, डोकटर, वकील इत्यादि भी आगे बढ़े हैं । १०० वर्षमें उनसे संयम दानका जो पुरुषार्थ हुआ वह अजोड़ हैं । उन्होंने आज तक कितने साधु दिये ? ८४ सालमें कितने साधु दिये ? थोड़ी गिनती कर लेना । पू. प्रेमसूरिजी न मिले होते तो मेरे जैसे को कभी दीक्षा नहीं मिलती । रमणलाल, दलसुख, जीवाभाई जैसे भी उस समय मुझे दीक्षा देने तैयार नहीं थे । - अंतमें उन्होंने खुद के नाम के स्मारक या मंदिर बनाने की ना कही थी । साधु ही मेरे स्मारक हैं, ऐसा वे कहते थे । २९८ कलापूर्णसूरि
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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