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पासमें आये कोई भी व्यक्ति की सूक्ष्म से सूक्ष्म बाबत का वे ध्यान रखते । उस समय के साधु समुदायमें मेरा नंबर १५५वां था । एक को साथमें लेकर सब शिष्यों की रोज रात को गिनती करते । रात को मुश्किल से दो घण्टे सोते ।
छेदसूत्रों को पूरे पचाकर बैठे हुए ये महापुरुष थे । उनके पास जो सूझ, दृष्टि थी वह दूसरे किसी के पास देखने नहीं मिली ।
प्राचीन प्रतों के संशोधक पू. पुण्यवि., पू. वल्लभसूरिजी के थे । मुझे शौक जगा, पू. पुण्यविजयजी के पास जाकर प्राचीन शास्त्र-संपादन सीखने का । मैं वहाँ नौ महिने तक गया । पू. पुण्यविजयजीने पुत्र की तरह मुझे प्रेम से सीखाया ।
रतिलाल नाथाभाई के यहाँ उद्यापन था । मैंने डरते-डरते पू. पुण्यविजयजी के पास पढने की बात की ।
सीधी कबूलात ही कर दी । कोई कह दे उससे अच्छा स्वयं ही कह देना । पू. प्रेमसूरिजी खुश हुए । पिता-पुत्र जैसा संबंध तेरा हैं । बहुत अच्छा । उसके बाद पू. पुण्यविजयजी के साथ मिलने की इच्छा पूज्यश्री को दिखाई । भर दोपहर १.०० बजे आये । ३ घण्टे दोनों बैठे । दोनों प्रसन्न हुए । पूज्यश्रीने संकल्प किया : मौका मिलते ही २५ साधु पुण्यविजयजी के पास भेजने ।
__शासन को विजयवंत बनाने का उनका मनोरथ था । कोई शक्तिशाली साधु अलग न हो, वैसी उनकी इच्छा थी ।
२०२२ या २०२३में पुण्यविजयजी मुंबई गये । वहीं उनकी आयु पूरी हुई । २०२४में स्वयं गये । इस प्रकार उनका मिशन अधूरा रहा ।
पू. साहेबजीने विल बनाया : 'अचलगच्छ के क्षेत्रमें भा.सु. ५ को बारसा सूत्र सुनाना ।' उस समय ऐसी बात करनी खतरनाक थी ।
दूसरी सूचना : 'किसी भी ग्लान साधु की वैयावच्च करने के लिए मेरा साधु पहुंच जाये ।।
भानुविजयजी के बाद (समुदाय को) जयघोषविजयजी संभाले, ऐसा उन्होंने विल बनाया । भानुविजयजी पहले जायेंगे, जयघोषविजयजी बादमें जायेंगे, यह नक्की था ? बननेवाली संभवित कहे कलापूर्णसूरि - ४00mmomosomwwwmomos २९७)