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दामोदर भगवान के समयमें पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति बनी थी ।
मूर्ति के साथ नाम होता ही हैं । भुवनभानु केवली या लक्ष्मणा साध्वीजी का भले ७९ जितनी चोवीसी के बाद उद्धार होता हो, लेकिन उस समय अपने उपकारी भगवान के नाम को वे थोड़े भूलेंगे ?
नामादि चारों निक्षेप से भगवान नित्य सर्वत्र उपकार कर रहे हैं, ऐसा हेमचंद्रसूरिजीने सच. ही लिखा हैं ।
* यह ग्रंथ वैसे तो मैंने बहुतबार देखा, किंतु इतनी सूक्ष्मतापूर्वक गिरिराज की छत्रछायामें पहलीबार पढा । इसलिए ही मैं आपको नहीं, मुझे स्वयं को सुनाता हूं। समय खास नहीं मिलता तो भी थोड़ा जो समय मिलता हैं उस समय पढते अद्भुत आनंद आता हैं ।
प्रत्येक पंक्ति को ५-१० बार पढो तो आपको अपूर्व आनंद आयेगा, भगवान का अनुग्रह समझमें आयेगा ।
जैन दर्शन समझना हो तो दो नय (निश्चय और व्यवहार) समझने खास जरुरी हैं । कोई भी बात कौन से नयसे कही गई हैं, वह गुरु के बिना समझमें नहीं आता ।
गोचरी इत्यादि के दोष आदि उत्सर्ग मार्ग हैं । पर उसके अपवाद भी होते हैं ।
उत्सर्ग स्वयं के लिये समझना हैं । पर दूसरों की बिमारी इत्यादिमें भी उत्सर्ग को आगे करो, और उसकी निंदा करने लग जाओ तो वह गलत हैं ।
पढकर वैद्य नहीं बन सकते । पढकर गीतार्थ भी नहीं बन सकते । उसके लिए गुरुगम चाहिए ।
भगवान के उपकारों का व्यवहारनयसे यहाँ वर्णन किया हुआ हैं । भगवान के उपकारों को नजर के सामने नहीं रखते इसलिए ही हम भयभीत हैं ।
अन्य दर्शनीयोंमें ऐसी प्रसिद्धि हो गई हैं : 'जैन ईश्वर को मानते ही नहीं ।'
ऐसी प्रसिद्धिमें हम भी कारण हैं ।
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