SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * आज ज्ञानपंचमी (लाभपंचमी) हैं । व्यापारी बोणी इच्छता हैं, उसी प्रकार मैं आपके पास से गुरु-दक्षिणा के रूपमें कुछ इच्छता हूं। ज्ञान हमारा प्रधान गुण हैं । आज सुबह से लेकर अब तक ज्ञान की ही आराधना की । विजयलक्ष्मीसूरिकृत देववंदन करके अभी आये । पूरा नंदीसूत्र, कर्ताने देववंदनमें उतार दिया हैं, ऐसा अभ्यासीओं को लगे बिना नहीं रहता । अंतमें केवलज्ञानमें कहा : चार ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान केवलज्ञान के लिए कितना प्रयत्न करते हैं ? हम तो प्रकरण-भाष्य करके संतोषी बन गये । परिश्रम ही कौन करे ? हम तो पुस्तक को पेटीमें रखकर माला लेकर बैठ गये । माला लें तो तो फिर भी अच्छा , बातें करने ही बैठ गये । मोहराजा की सूचनानुसार करेंगे तो कब कल्याण होगा ? लक्ष्मीसूरिजी लिखते हैं : 'अनामीना नामनो रे, किश्यो विशेष कहेवाय ? ते तो मध्यमा-वैखरी रे, वचन उल्लेख ठराय ।' ' भगवान स्वयं अनामी हैं, पर हमारे लिए नाम धारण किया हैं । भगवान घननामी हैं । अनामी - अरूपी भगवान का अनुभव न हो वहा तक हमारे लिए भगवान का नाम और भगवान का रूप ही आधार हैं । नाम और रूपमें मंत्र और मूर्तिरूप साक्षात् भगवान रहे हुए हैं, ऐसा भक्त को लगा करता हैं । भगवान के अलग-अलग नाम अलग-अलग शक्तिओं का परिचय देते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, GOD, अल्लाह, इत्यादि किसी भी नामसे पुकारो। भगवान के साथ संधान होगा। कोई भी नंबर लगाओ। टेलिफोन लगेगा। क्योंकि भगवान के बहुत टेलिफोन नंबर हैं । भगवान के नाम का जाप भाष्य-उपांशु पद्धति से करने के बाद मानस जाप से करना हैं । उसके बाद भगवान के साथ अभेद प्रणिधान होता हैं तब नाम का जाप अटक जाता हैं । तब साक्षात् भगवान मिलते हैं। 'ध्यान टाणे प्रभु तुं हुए रे, अलख अगोचर रूप; परापश्यन्ती पामीने रे, कांई प्रमाणे मुनि भूप ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ४0wwww00000000000000 २२७)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy