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________________ निवासः शारीरादिदुःखानाम् । * यह संसार तो शारीरिक आदि दुःखों का निवास हैं । मद्रासमें थे तब ऐसे बहुत केस देखने को मिलते, जो देखते हृदय काप उठता था । आठ वर्ष के बालक की कीडनी फेल ! एक वर्ष के बालक के हृदय का वाल्व काम न करें ! किसी बालक को पोलियो ! हम सब रोग लेकर ही जन्म लेते हैं । रोग नहीं आता यह महापुण्योदय मानें । * अयोग्य जीव थोड़ा समझदार होता हैं और माता-पता को छोड़ देता हैं । अयोग्य विद्वान होता हैं और गुरु को छोड़ देता हैं । अयोग्य पूजनीय हो जाय तो भगवान को छोड़ते भी समय कितना ? रोहगुप्त, जमालि इत्यादिने ऐसा ही किया था न ? जिन भगवानने दीक्षा दी, ११ अंग पढाये, उन भगवान का एक वाक्य मानते क्या तकलीफ थी? किंतु मिथ्यात्व-युक्त अभिमान अंदर बैठा होता हैं न ? वह ऐसे नहीं होने देता ।। * मेरे परम उपकारी पू. रामचंद्रसूरिजी के प्रवचनों से ही मुझे संसार से वैराग्य हुआ था । वे ऐसा वैराग्य प्राप्त कराने में अति कुशल थे । राजनांदगांवमें पू. रूपविजयजी के पास उनके जैन प्रवचन आते थे । गुजराती नहीं आती होने पर भी वह पढने के लिए प्रयत्न करता था । वह पढकर मुझे संसार से वैराग्य हुआ था । ___ हरिभद्रसूरिजी कहते हैं : न युक्त इह विदुषः प्रमादः, यतः अतिदुर्लभेयं मानुषावस्था । यहाँ विद्वानों को थोड़ा भी प्रमाद करने जैसा नहीं हैं । क्योंकि यह मनुष्य-अवस्था दुर्लभ हैं । * योगदृष्टि समुच्चयमें खास लिखा हैं : अर्थी को ही यह ग्रंथ दें। इस ललित विस्तरा के लिए भी पहले योग्यता बताई हुई हैं। व्यापारी माल किसे देता हैं ? जरूर हो उसे ही । जबरदस्ती देने जाय तो किंमत घटानी पड़े। चालाक व्यापारी ग्राहक के हृदयमें इच्छा कराता हैं। . पूज्य कलाप्रभसूरिजी : आपने यह सब किया था ? (कहे कलापूर्णसूरि - ४Boooooooooooooooo २१३)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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