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________________ सारभूत गिनाते हो तब विचारने जैसा नहीं क्या ? आगमोद्धारक पू. सागरजीने कहा था : उपा. यशोविजयजी के ग्रंथोंमें से एक अक्षर की भी भूल नहीं निकल सकती । वे तो हरिभद्रसूरिजी के अवतार थे । राग यों ही नहीं मिटता । कांटा कांटे से जाता हैं, उसी तरह राग राग से जाता हैं । संसार के राग को प्रभु के रागमें बदलना, यही भक्ति का बीज हैं । भगवान के उपर बहुमान जगे तो भगवान के वचन के ऊपर भी बहुमान जगता ही हैं । 'सव्वे जीवा न हंतव्वा' यह भगवान का वचन हैं । इसलिए ही भक्ति आखिर विरति तरफ ले जाती हैं । (२१) धम्मदेसयाणं । . भगवान जीवों की भव्यता (योग्यता) के अनुसार देशना देते हैं, योग्यता से ज्यादा नहीं। आनंद आदि श्रावकों के लिए भगवानने कभी सर्वविरति का आग्रह नहीं रखा । भगवान देशनामें क्या कहते होंगे? हरिभद्रसूरिजीने दिया हुआ नमूना देखो : प्रदीप्तगृहोदरकल्पोऽयं भवः । यह पूरा संसार जलता हुआ घर हैं । हैदराबादमें मैं छोटा था तब पांच मंजिल की एक थियेटरमें नीचे आग लगी थी । पांचवीं मंजिल पर लोग सिनेमा देख रहे थे । उस समय लोग क्या करेंगे ? सिनेमा देखने को बैठेंगे या बचने की कोशीश करेंगे ? संसार जलता घर हैं । ऐसा अभी लगा नहीं हैं । लगे तो एक क्षण भी कैसे रह सकते हैं ? चारों तरफ से भय लगता हो तभी सच्चे अर्थमें शरण स्वीकारने का मन होता हैं । ___ मुझे स्वयं को गृहस्थावस्थामें दो-चार वर्ष तक ऐसा अनुभव हुआ था । संसारमें रहता था पर वेदना पारावार ! छ काय की हिंसा कहा तक करनी ? मनमें नित्य वेदना रहती थी । ऐसे भाव के साथ दीक्षा ली हो तो यहाँ आने के बाद छ कायके प्रति कितना प्रेम उभरे ? (२१२ 80mmonommoooooooooos कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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