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पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकलापूर्णसूरिजी :
आज नूतन वर्षमें नवस्मरण, गौतमस्वामी का रास इत्यादि सुना । सर्व विघ्नों को नाश करनेवाले नवस्मरण पासमें होने पर भी हम दूसरी जगह दौड़ते हैं । कुछ स्मरण तो संघ को निर्विघ्न आराधना कराने के लिए ही रचे हुए हैं ।
उवसग्गहरंमें भगवान के पास गणधरों की याचना हैं : हे भगवन् ! मुझे बोधि दो ।
सचमुच ही भगवान के प्रभाव के बिना गणधरों को भी बोधि नहीं मिलती ।
कोठीमें रहा हुआ बीज अपने आप नहीं उगता, उसी तरह भगवान के बिना हमारी भगवत्ता कभी नहीं ही प्रकट होती । अनेक जन्मोंमें एकत्रित किये हुए पुण्य से ही ऐसा धर्म, ऐसे भगवान मिले हैं । कैसी भूमिका पर हम आ गये ? हमें संयम मिला । आपको इसकी अभिलाषा मिली । यह कम बात हैं ?
भविष्य के साधु आदि संघमें से ही होंगे न ? इसलिए ही संघ गुणरत्नों की खान हैं, भगवान के लिए नमनीय हैं । आज के दिन को मंगलमय बनाना हो तो आप कोई भी नियम अवश्य लें ।
आप प्रतिज्ञा लेंगे वही गुरु-दक्षिणा होगी ।
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मान सरोवर का हंस गंदे पानीमें मुंह नहीं डालता, वह मोती चुगता है, उसी तरह साधक - ज्ञानी संसार के व्यावहारिक प्रयोजन करने पड़े तो ही करते हैं, परंतु उसे प्राधान्य नहीं देते, परंतु ज्ञानी के मार्ग पर चलते हैं, जिनाज्ञा को अनुसरते हैं ।
१८ कहे कलापूर्णसूरि ४