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नव पूर्व तक पढे हुए भी, यह चक्षु न मिले हो तो अंधे हो सकते हैं।
प्रकरण ग्रंथ भी कौन याद करते हैं ? व्याख्यान यों ही चलते हैं न ? प्रकरण ग्रंथों की जरुरत हैं व्याख्यानमें ?
'तत्त्वरुचि जन थोड़ला रे' पू. देवचंद्रजी के ३०० वर्ष पहले के उद्गार आज भी सच्चे ही लगते हैं । शायद हर कालमें ज्यादातर मानव-समूह ऐसा ही होता होगा । ऐसे पंचम कालमें तो सविशेष ऐसा ही होगा ।
_ 'एगो मे सासओ अप्पा ।' रोज संथारा पोरसीमें बोलते हैं, फिर भी आत्मा याद नहीं आती । आत्मा को भूल न जायें इसलिए ही तो संथारा पोरसीमें इस बातका समावेश किया गया हैं । ____ मैं तो ऐसी बातें करते ही रहूंगा । चाहे आपको अच्छी लगे या न लगे, किंतु वस्तु स्थिति तो कहूंगा ही । काल पक जाएगा तब यह सब समझमें आयेगा, इतनी श्रद्धा हैं । मुझे स्वयं को भी पू.पं.श्री भद्रंकर वि.म. की कुछ बातें समझमें नहीं आती थी । आज २०-२५ साल के बाद समझमें आ रही हैं। उसी तरह आपको भी भविष्यमें यह समझमें नहीं आयेगा, ऐसा मैं नहीं मानता । मैं आशावादी हूं।
निराश करने के लिए ये सारी बाते मैं नहीं करता । आपमें इस के लिए इच्छा उत्पन्न करनी हैं । इच्छा उत्पन्न होने के बाद आगे का काम अपने आप हो जायेगा ।
* घेबर, जलेबी, रोटी, लड्ड आदि बनते हैं इसी गेहूं के आटे, शक्कर और घीमें से । मात्र बनाने की पद्धतिमें फरक । बात वही की वही हो, पर शास्त्रकार अलग-अलग दृष्टिकोण से कहते हैं । अनेकविध बातोंमें भी मूलभूत बात एक ही होगी । आप बराबर देख लेना ।
* हम सब पढने में ही पड़ गये, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के लिए प्रयत्न करने लग गये । पर मात्र इतने से क्या होगा ? मोहनीय कर्म पर फटका न पड़े वहां तक कुछ नहीं होगा । मैं भक्ति पर इसलिए ही जोर देता हूं । भक्ति ही ऐसा वज्र हैं, जिससे मोह का पर्वत चूर-चूर हो जाता हैं । भक्ति से आप 'सदागम' कहे कलापूर्णसूरि - ४00mooooooooooooooo00 १७९)