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भी आत्मप्रदेश का मूल्य कितना ? एक आत्मप्रदेशमें अनंत गुण हैं । इसकी उपेक्षा कैसे हो सकती हैं ? इसीलिए ही भगवतीमें गौतमस्वामी को भगवान कह रहे हैं : एक प्रदेश भी कम हो तो जीवास्तिकाय नहीं ही कहा जाता ।
* आत्म-रमणता का अर्थ हमें समझमें नहीं आता । क्योंकि भाव से चारित्र अब तक मिला नहीं हैं. आत्म-रमणता का आस्वाद लिया नहीं हैं । आत्म-रमणता के अनुभव के बिना उसका अर्थ समझमें नहीं आता ।
* मन हताश हो तब विचारें : पुद्गलों का चाहे जितना संग किया फिर भी जीव पुद्गल नहीं ही हैं, पुद्गल के आधार पर टिका हुआ भी नहीं हैं, वस्तुतः उसका रंगी (अनुरागी) भी नहीं हैं, पुद्गल का मालिक भी (पुद्गल से शरीर, धन, मकान वगैरह सभी आ गया) नहीं हैं, जीवका ऐश्वर्य पुद्गलाधारित नहीं हैं।
इतना ही विचार हमें कितने आनंद से भर देता हैं ? क्या था वह चला गया ? क्या मेरा हैं वह चला जायेगा ? क्यों चिंतातुर बनूं ?
किसी भी प्रकार के संयोगमें ऐसी विचारणा हमारी हताशा को दूर करने के लिए पर्याप्त हैं ।
तत्त्वदृष्टि - व्यवहारदृष्टि तत्त्वदृष्टि ज्ञानस्वरूप हैं, जिसमें वस्तु का सत्स्वरूप प्रकाशित होता हैं । व्यवहारदृष्टि क्रिया स्वरूप हैं । उन क्रियाओं का मतलब हैं अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह का आचरण । इसलिए तत्त्व का लक्ष करना और शक्य का प्रारंभ करना ।
(१५२wooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि-४)