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________________ पूआ श्री कामापासरीवाजीग या सिने मुनि श्री कार्निचन्द्रविजयजी म.सा एत पु मुनि श्री मुक्तिद्रविजयजी मध्याति मध्य पन्यान्य सीट Arg ता2296 SORRORIODIONRNORRHOICS पंन्यास पद प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ शु. १३ १२-१०-२०००, गुरुवार अश्विन शुक्ला - १४ दोपहर ४.०० पू. देवचंद्रजी के स्तवन ( सांतलपुर निवासी वारैया वखतचंद मेराज आयोजित उपधान तप प्रारंभ : ३८० आराधक) * औदारिक शरीर, भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण वह द्रव्ययोग (काया, वचन और मन) हैं, उसमें आत्मा का वीर्य जुड़े वह भावयोग हैं । * आत्मा की मुख्य दो शक्तियां हैं : ज्ञप्ति - शक्ति और वीर्य-शक्ति । स्वाध्याय वगैरह से ज्ञप्तिशक्ति, क्रिया वगैरह द्वारा वीर्य-शक्ति बढती हैं । बहुत ऐसे आलसी होते हैं कि शरीर को थोड़ी सी भी तकलीफ नहीं देते और ध्यान की ऊंचीऊंची बातें करते हैं । सच्चा ध्यान वह कहा जाता हैं, जिसमें उचित क्रिया को धक्का न पहुंचे । प्रत्येक उचित क्रिया परिपूर्ण रूप से जहां होती हो वह सच्चा ध्यानयोग हैं । ध्यानयोग कभी कर्तव्यभ्रष्ट नहीं बनाता । अगर ऐसा होता हो तो समझें : यह ध्यान नहीं, ध्यानाभास हैं । पू.पं. भद्रंकरविजयजी के पास यही (१५० sase is a cos Se s s कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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