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ध्यान से अर्थादि तीनों योग लेने हैं ।
सुदर्शन सेठ सूली पर चढनेवाले हैं, ऐसे समाचार मिलते ही मनोरमाने कायोत्सर्ग किया था ।
यक्षा साध्वीजी को महाविदेहमें निर्विघ्न पहंचाने के लिए चतुर्विध संघने कायोत्सर्ग किया था ।
आज भी छोटे बालक को भी हम कायोत्सर्ग सीखाते हैं । पू.पं. भद्रंकर वि.म. कायोत्सर्ग पर बहुत जोर देते थे ।
कायोत्सर्ग के रहस्य समझकर उसका प्रचार करने जैसा हैं । परस्पर का इससे संक्लेश दूर होगा, मैत्रीभरा वातावरण जमेगा ।
अध्यात्मयोगमें प्रतिक्रमण, मैत्री आदि भाव हैं ।
कायोत्सर्गमें ध्यान और अनालंबन योग हैं । एक कायोत्सर्गमें ध्यान के सभी भेदों का समावेश हो सकता हैं। एक मात्र भगवानमें आपका मन लगना चाहिए ।
(१५)लय, (१६) परम लय :
द्रव्य से वज्रलेप । पूर्व कालमें वास्तुशास्त्र के अनुसार वज्रलेप तैयार होता था। आज के सिमेन्ट से चढ जाये वैसा वज्रलेप बनता । उससे तैयार होते मंदिर बरसों तक टिक सकते थे ।
भाव से अरिहंतादि चारमें चित्त लगाना ।
भगवान के साथ हमारे चित्तका वज्रलेप हो जाना चाहिए । गुणमें लय प्राप्त किये हुए भगवान हैं । उसमें हमारे मन का लय हो जाये तो काम हो जाये ।
* अरिहंत के साथ सिद्ध तो ठीक, परंतु साधु कहां बैठ गये ? साधु अरिहंत के उपासक हैं । साधु-साध्वीजी अरिहंत से अलग हो ही नहीं सकते । हो तो द्रव्य साधुत्व समझें, मात्र आजीविकारूप साधुत्व समझें ।
हमने चार की शरण कहां ली हैं ? मात्र अहं की शरण ली हैं ।
'त्वमेव शरणं मम ।' ऐसा हमारी जीभ बोलती हैं । 'अहमेव शरणं मम ।' ऐसा हमारा हृदय बोलता हैं । मोटाना उत्संगे बेठाने शी चिन्ता ?
___ - पू. देवचंद्रजी कहे कलापूर्णसूरि - ४00wooooooooooooooon १३७)