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________________ सकल जीवराशि के साथ हम जुडे हुए हैं । उसमें किसी की भी उपेक्षा नहीं चलती । इसीलिए ही बार बार इरियावहियं द्वारा, सर्व जीवों के साथ प्रेम-संबंध जोड़ना हैं; जो पहले टूट गया था । समग्र जीवराशि के साथ क्षमापना हो तो ही मन सच्चे अर्थमें शांत बनता हैं । किसी का भी अपमान करके आप निश्चल ध्यान नहीं कर सकते । सभी जीव भगवान का परिवार हैं । एक भी जीव का अपमान करेंगे तो परमपिता भगवान खुश नहीं होंगे। जीवास्तिकाय के रूपमें हम सब एक हैं, एक मानने के बाद जीवों को परिताप उपजायें तो बड़ा दोष हैं। इसीलिए ही इरियावहियं द्वारा इन सबके साथ क्षमापना करनी हैं । * कायोत्सर्गका उद्देश क्या ? पाप कर्मों का क्षय । 'पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ।' * विषय-कषाय की मलिनता दूर किये बिना उज्ज्वलता प्रकट नहीं होती । और वहां तक प्रभु नहीं मिलते । पू. धुरंधरविजयजी म. : मलिन आत्मा को नहलाने का काम भगवान का नहीं हैं ? पूज्यश्री : अब आप बडे हुए । छोटे नहीं हैं । हां, प्रभु आपको गुणरूपी पानी की व्यवस्था कर देंगे । 'तुम गुण गण गंगाजले, हुं झीलीने निर्मल थाऊं रे ।' - उपा. यशोविजयजी * गणधरोंने तो मात्र भगवान का कहा हुआ नोट किया हैं । नोट करनेवाले कभी स्वयं का दावा नहीं करते । वे तो मात्र ऐसे ही कहते हैं, 'त्ति बेमि' मैंने जो सुना हैं, वह कहता हूं। * गणधर भी छद्मस्थ हो वहां तक प्रतिक्रमण करते हैं । * ताव कायं ठाणेणं से स्थान, मोणेणं से वर्ण, झाणेणं से अर्थ - आलंबन - अनालंबन । काया से स्थानयोग । वचन से वर्णयोग । __ मौन से वर्णयोग । यहां वैखरी वाणी बंध हैं । अंतर्वाणी बंध नहीं हैं । अंतर्जल्प चालु ही हैं । (१३६ .00mooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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