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तीर्थमाल, शंखेश्वर, वि.सं. २०३८
९-१०-२०००, सोमवार
अश्विन शुक्ला - ११
ध्यान विचार :
* रत्नत्रयी के मार्ग पर चलने के लिए अहिंसा, संयम, तप, दान आदि का पालन जरुरी हैं । प्रभु के ध्यानमें रत्नत्रयी समायी हुई हैं।
_ 'ताहरूं ध्यान ते समकितरूप, तेहिज ज्ञानने चारित्र तेह छे जी ।' ।
- उपा. यशोविजयजी ध्याता ध्येय स्वरूप बन जाये तब ज्ञानादिकी एकता हो जाती हैं । वहां तक पहुंचने से पहले विविध ध्यान द्वारा जो अनुभव होते हैं, वे यहां व्यक्त करने में आये हैं ।
* सुविकल्प या कुविकल्प दोनों शांत हो जाने के बाद नादका प्रारंभ होता हैं । आलंबन ध्यान छूट गया हैं, अनालंबन बाकी है - उन दोनों के बीच का सेतु नाद हैं ।
जहां तक अक्षर या पदमें ही मन हो वहां तक सविकल्प ध्यान होता हैं । उसके बाद अक्षर-पद छूट जाते मात्र ध्वनि रहने पर नाद प्रकट होता हैं । [१३४ 0000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)