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________________ (१) धर्म संबंधी जिज्ञासा : धर्म क्या हैं ? ऐसी बुद्धि । जानने की मात्र इच्छा (यह इच्छा स्व-कल्याण के लिए होनी चाहिए । दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, इतना स्पष्टीकरण कर देता हूं ।) (२) उसका स्वरूप पूछने का मन होता हैं । (३) पूछने के लिए सद्गुरु के पास जाने की इच्छा होती . (४) औचित्य, विनय और विधिपूर्वक धर्मस्वरूप पूछना । (५) धर्म की महिमा जानने के बाद समकित प्राप्त करने की इच्छा । (६) समकित के प्रकीटकरण की अपूर्व क्षण । (७) समकित प्राप्त करने के बाद उसका उत्तरोत्तर विकास । द्वितीय गुणश्रेणिमें अवान्तर तीन गुणश्रेणियां होती हैं । (१) देशविरति - धर्म को प्राप्त करने की इच्छा । (२) देशविरति - धर्म की प्राप्ति । (३) देशविरति - प्राप्ति के बाद की अवस्था । इस तरह तृतीय गुणश्रेणिमें भी अवान्तर तीन गुणश्रेणियां होती (१) सर्वविरति धर्म प्राप्त करने की इच्छा, (२) उसकी प्राप्ति और (३) तद् अवस्था । चतुर्थ गुणश्रेणिमें अवान्तर अवस्थाएं (१) अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ की विसंयोजना (क्षय) करने की इच्छा । (२) उसका क्षय और (३) क्षय के बाद की अवस्था । पांचवी गुणश्रेणिमें अवान्तर - अवान्तर अवस्थाएं (१) दर्शन मोह-दर्शनत्रिक को क्षय करने की इच्छा (२) उसका क्षपण और (३) क्षयके बाद की अवसथा ।। छट्ठी गुणश्रेणिमें मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतिओं के उपशमका प्रारंभ होता हैं । उसे 'मोह-उपशामक' अवस्था कहते हैं । कहे कलापूर्णसूरि - ४ &00000000000000 १२९)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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