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नाद, कला, बिंदु आदि द्वारा आत्म-शक्तियां विकसित करनी हैं । इसके द्वारा पहुंचना हैं आखिर भगवान तक, परम विशुद्ध हुए
आत्मा तक ।
इसलिए ही कहता हूं : इस ध्यान- विचार का संबंध सभी आगमों के साथ हैं । गणधर या गणधर के शिष्य नित्य सूत्रों का स्वाध्याय क्यों करते हैं ? क्योंकि उससे ध्यान के गहन रहस्य प्रकट होते रहते हैं । ध्यान के कोष्ठकमें बंद होने के बाद ही अंदर के रहस्य समझमें आते हैं ।
ध्यान- विचार ग्रंथ तो मैंने लिखा, पर उसका प्रयोग कौन कितना करता हैं ? वह अब देखना हैं ।
(१०) परम बिंदु ध्यान :
बरसों पहले मेरा चिंतन था : गुणस्थानकों में जितने करण (अपूर्वकरण आदि) हैं, वे सब समाधिवाचक हैं । अभी स्पष्ट समझमें आता हैं : सचमुच, ऐसा ही हैं ।
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यथाप्रवृत्तिकरण भवचक्रमें हमने अनंतीबार किया हैं | अभव्य भी करते हैं । सभी कर्मप्रकृतियां अंत:कोड़ाकोड़ी की स्थितिमें आ जाये तब यथाप्रवृत्तिकरण होता हैं । अनंत यथाप्रवृत्तिकरण व्यर्थ गये, ऐसा मत मानें, वे भी पूरक हैं ।
किसी भी ध्यान का प्रकार आने के बिना कर्म-निर्जरा नहीं होती । अशुभ कर्म के बंधमें भी ध्यान हैं ही। किंतु वह आर्त्तरौद्र ध्यान हैं । मोक्षमें प्रथम संघयण जरुरी हैं, उस तरह सातवीं नरकमें भी वह जरुरी हैं । मोक्षमें ध्यान जरुरी हैं, उस तरह सातवीं नरकमें भी ध्यान जरुरी हैं। फर्क मात्र शुक्लध्यान और रौद्रध्यान का हैं। दोनों शुभ-अशुभ ध्यान की पराकाष्ठा हैं । एक मोक्षमें ले जाता हैं, दूसरा सातवीं नरकमें ले जाता हैं ।
कर्मग्रंथ कर्मप्रकृति द्वारा कर्मक्षय बताते हैं । आध्यात्मिक ग्रंथ गुणश्रेणि (गुण - प्राप्ति) बताते हैं । बात दोनों एक ही हैं । कर्मक्षय के बिना गुणप्राप्ति कैसे ?
बिंदु ध्यानमें थोड़े-थोड़े कर्म बिंदु-बिंदु के रूप में झड़ते हैं । परम-बिंदु ध्यानमें बड़े पैमानेमें कर्म झड़ते हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ४www
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