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________________ * इसीलिए ही भगवान निर्यामक हैं, महामाहण हैं, वैद्य हैं, गोप हैं, आधार हैं, सुख सागर को उल्लसित करनेवाले चंद्र हैं, भावधर्म के दाता हैं । स्तवन तीसरा * भगवान का स्वरूप कल्पना न कर सकें वैसा हैं इसलिए भगवान अकल हैं । कला रहित भी अकल कहा जाता हैं । संसार की सभी कलाएं भगवानमें अस्त हो गई हैं, डूब गई हैं । * भगवान जगत के जीवों के सुख के लिए अविसंवादी (अवश्य सत्य बननेवाले) निमित्त हैं । भगवान पर बहुमान जगे तो उनके गुण, उनकी ऋद्धि मिलती ही हैं । बहुमान ही गुणों का द्वार हैं । जो भगवान का बहुमान करता हैं उसे भगवान मिलते ही हैं । * हमारी आत्मा उपादान कारण जरूर हैं। पर पुष्टालंबन तो भगवान ही हैं । किंतु उस उपादान कारणमें कारणता प्रकट करनेवाली भगवान की ही सेवा हैं । जो कारण स्वयं कार्य बन जाये वह उपादान कारण कहा जाता हैं । उदाः मिट्टी स्वयं ही घड़ा बन जाती हैं । इसलिए मिट्टी घड़े के लिए उपादान कारण हैं । जीव स्वयं ही शिव बन जाता हैं, इसलिए जीव उपादान कारण हैं । भगवानमें भी पुष्ट कारणता तब प्रकट होती हैं जब जीवमें उपादान कारणता प्रकट होती हैं । दोनों सापेक्ष हैं । अभव्य जीव उपादान कारण जरुर हैं, पर उसमें उपादान कारणता कभी प्रकट नहीं होती । इसलिए ही भगवानमें उसके लिए कभी भी पुष्ट निमित्तता प्रकट नहीं होती । [कहे कलापूर्णसूरि - ४00000000000000000000 १२५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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