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________________ ज्ञानी ज्ञानी को मात्र मौन से पहचान लेता हैं । उसके बाद साथमें रहना हुआ । २०३१में पू.पं.श्री राता महावीर तीर्थमें मिले । सर्वप्रथम १५ दिन तक मुझे उन्होंने सुना । मुझे खाली किया । फिर साधना का अमृत परोसा । ध्यान-विचार पर लिखने की प्रेरणा उन्होंने ही दी थी । उनकी निश्रामें ही लिखने की शुरुआत की । उस समय 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के उपर क्यों नहीं लिखते ? ऐसा उपालंभ भी सुनने को मिला । * द्रव्य से नाड़ी दबाने से भी समाधि लग जाती हैं । (रामकृष्णने अमुक नस दबाकर विवेकानंद को समाधि दी थी ।) पर यह द्रव्य समाधि समझें, भाव समाधि अलग चीज हैं । * मन से प्राण भी वशमें होते हैं । उन्मनी भाव प्राप्त किया हुआ मन हो तब प्राण स्वयं शांत बन जाते हैं, ऐसा १२वें प्रकाशमें (योगशास्त्र) लिखा हैं । मंत्र से मन वशमें आता हैं । मंत्र वही हैं जिसका मनन करने से आपका रक्षण करे । मन शुद्ध होते आत्मा शुद्ध होती हैं । तीनों शुद्ध होते मंत्रदाता गुरु और ध्येय भगवान के साथ संधान होता हैं । मंत्रात्मक अक्षरों का ध्यान करने से मन का रक्षण होता हैं । * चित्त को त्रिभुवनव्यापी बनाने के बाद अत्यंत सूक्ष्म (वालाग्र भाग से भी सूक्ष्म) बनाकर वहां से हटाकर आत्मामें स्थिर करना वह परमशून्य ध्यान हैं । * मेरा बाहर पड़ा हुआ साहित्य मेरा नहीं हैं, पू.पं. भद्रंकर वि.म. का हैं । मेरा तो प्रकाशन करने का मन ही नहीं था, पर उन्होंने ही प्रकाशित करवा दिया, ऐसा कहूं तो चले । एक बार हीराभाईने पूछा : 'अनाहत देव' क्या हैं ? मैंने उस पर चिंतन करके अनाहत पर लिखा : वह लेख कापरड़ाजी तीर्थ के विशेषांकमें छपा । अनाहत देव का पूजन लब्धिपूजन से पहले हैं । जो मंत्रशक्ति ध्वन्यात्मक बनी वह पूजनीय बनी । अनाहत नाद का अनुभव किया हो ऐसे ही मुनिओं को लब्धि प्रकट होती हैं। अनाहत सेतु हैं, जो अक्षरमें से अनक्षरमें ले जाता हैं । (११०000woooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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