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________________ भी द्वादशांगी आ गई । इसीलिए ही २४ ध्यान के भेदोंमें अंतिम चार जितने भेद नवकार को मिलते-जुलते हैं, जो महत्त्वपूर्ण हैं । मैं बादमें बताऊंगा । इस ध्यानमें आगम, मूर्ति, संयम या जाप, कुछ भी छोड़ना नहीं हैं । आज्ञा-विचय ध्यानमें यह सब आ ही गया हैं । देहमें फिरते मन को देवमें जोड़ देना, यही ध्यान का काम हैं । (२) परम ध्यान : - धर्मध्यान के ११ द्वार बताकर ध्यान शतकमें विस्तार से सब बताया हैं । __ध्यान से वस्तुतः मन को पकड़ना हैं, परंतु उसके पहले वचन और काया को पकड़ना पड़ेगा । काया और वचनकी स्थिरता के लिए ही पांच समिति हैं । इसलिए ही समिति के सम्यग् अभ्यास के बिना गुप्ति का पालन नहीं हो सकता, मनका निग्रह कर नहीं सकते । क्रमशः ही यह ध्यान सूक्ष्म बनता हैं । विकल्पात्मक ध्यान सुगम हैं । यह कला सिद्ध हो जाने के बाद ही निर्विकल्पात्मक ध्यानमें जा सकते हैं। सीधे ही निर्विकल्प करने गये तो गड़बड़ हो जायेगी । विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट औ सुलीन चार अवस्थाओं में से गुजरा हुआ मन ही निर्विकल्प ध्यान के लिए योग्य बनता हैं । इस ध्यान को जीवनभर टिकाकर परलोकमें भी साथमें ले जाना हैं । ___ आज की अन्य दर्शनीयों की ध्यान-शिबिरें तंबू जैसी हैं । तंबू जलदी खड़ा हो जाता हैं, पर पवन से उड भी जलदी जाता हैं । परंतु हमारे यहां पूर्वभूमिका का ध्यान पक्का मकान हैं, नींव खोदकर खड़ा किया हुआ हैं । बनाते समय यद्यपि समय लगता हैं, पर झंझावात से यह धराशायी नहीं बनेगा । * शुक्लध्यान के ४ लक्षण : शुक्लध्यान प्राप्त हो गया हो उसे अव्यथा, असंमोह, विवेक और व्युत्सर्ग प्राप्त हो गये होते हैं । अव्यथा : देवादि उपसर्गोमें व्यथा नहीं होती । .असंमोह : सैद्धांतिक पदार्थों से अमूढता । (कहे कलापूर्णसूरि - ४65soonsoooooooooom ९१)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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