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________________ जिन्हें समय मिले वे सभी विवेचन पढ लें । मूल पाठ कण्ठस्थ करेंगे तो यहां की बातें जल्दी समझमें आयेगी । * ध्यान के वैसे तो चार ही भेद हैं : धर्म, शुक्ल, आर्त्त और रौद्र । आर्त्त-रौद्र से छूटकर धर्म-शुक्लमें प्रवेश करना यही मुख्य बात हैं । आर्त्त-रौद्र ध्यान चित्त को अस्वस्थ बनानेवाले हैं । खास तो इस से छूटना हैं । ये २४ प्रकार तो ध्यान के मार्ग के भेद हैं । मतलब मार्ग अलग हैं, पर पहुंचना तो एक ही स्थान पर हैं। इन चौबीसों प्रकारों द्वारा आखिर धर्म-शुक्ल ध्यानमें ही प्रतिष्ठित होना हैं । * समता से चित्त निर्मल होता हैं तब अंदर रहे हुए प्रभु दिखते हैं । यह समता अनंतानुबंधी आदि कषायों के विगम से आती हैं । ज्यों ज्यों कषायों का हास होता जाये त्यों त्यों अंदर की समता प्रकट होती जाती हैं । गुणस्थानकोंमें आगे बढते जायें त्यों त्यों परमात्मा ज्यादा से ज्यादा शुद्ध रूपमें प्रकट होते जाते * दूसरी वाचनाओं की तरह यह सिर्फ सुनने के लिए नहीं हैं, किंतु इसे जीवनमें उतारेंगे तो ही कुछ लागु पड़ेगा । * वाचना, पृच्छना आदि ४में से पसार होने के बाद ही धर्मकथा आ सकती हैं । पर हमने इसे प्रथम क्रमांक दे दिया हैं । लोगों के द्वारा साधुवाद मिलता हैं न ? * द्वादशांगी का सार ध्यान हैं । हमारे संयम-जीवन का वरराजा ध्यान हैं, किंतु हम इसे भूल गये हैं । बिना दुल्हे की बारात बन गई हैं । * धर्मध्यान के चार प्रकार : आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान । चलचित्त के तीन प्रकार : चिंता, भावना और अनुप्रेक्षा । * हमारे पास स्वाध्याय की विपुल सामग्री हैं । यही बड़ा पुण्य हैं । द्वादशांगी हमारे पास हैं न ? शायद द्वादशांगी पूरी न हो तो जो हैं वह द्वादशांगी ही हैं । अरे... चार अध्ययन अंतमें बचेंगे वे भी द्वादशांगी ही कहे जायेंगे । कुछ याद न रहे तो नवकारमें (९०000 sooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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