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चित्त की तीन अवस्थाएं हैं : निर्मलता, स्थिरता और उसके बाद तन्मयता ।
जैनशासनमें प्रथम निर्मलता हैं । इसीलिए ही अहिंसा आदि को इतना महत्त्व दिया गया हैं। इससे निर्मलता मिलती हैं । निर्मलता
मतलब प्रसन्नता ।
प्रीति भक्ति वचन असंगमें से कौन से प्रकार का आपका अनुष्ठान हैं, वह भी देखना जरुरी हैं ।
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* ध्यान के कुल २४ प्रकार इस गाथामें बताये हैं । ध्यान से धर्मध्यान लेना हैं । धर्मध्यानमें आज्ञाविचय ध्यान सबसे पहले आता हैं ।
प्रभु - आज्ञा के चिंतन से धर्मध्यान का प्रारंभ होता हैं । ध्यान विशिष्ट प्रकार का बनता हैं तब परमध्यान बनता हैं, जो शुक्लध्यान के अंशरूप बनता हैं ।
* द्रव्य से आर्त्त-रौद्र, भाव से धर्म, शुक्लध्यान हैं । द्रव्य का अर्थ यहां कारण नहीं करना, बाह्य करना हैं । इसीलिए ही प्रथम आर्त्त - रौद्र ध्यान का वर्णन करेंगे । अनादिकाल से इसीमें ही मन डूबा हुआ हैं, उसमें से पहले मुक्त होना हैं । आर्त्त - ध्यान मात्र स्वयं की पीड़ा के विचार से होता हैं । इसकी जगह दूसरों की पीडाका विचार करो तो वह ध्यान धर्म-ध्यान बन जाता हैं ।
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तत्र ध्यानं चिन्ता - भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायः । भगवान के शरणार्थी हम हैं, भगवान को हमने नाथ के रूपमें स्वीकारे हैं तो योग-क्षेम की भगवान की जवाबदारी हैं । हम ध्यान के अधिकारी न बने तो धंधेमें डूबे हुए गृहस्थ अधिकारी बनेंगे ?
मन को इतना व्यग्र बना देते हैं कि ध्यान की बात से दूर, चिंतन भी कर नहीं सकते । इतनी सारी जवाबदारियां लेकर हम फिरते हैं ।
* यहां व्यक्त रूप से मंगल आदि न होने पर भी अव्यक्त रूप से हैं ही । ध्यान के अधिकारियों का भी निर्देश किया ही हैं । चतुर्विध संघ का योग्य सभ्य ध्यान का अधिकारी हैं ।
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कहे कलापूर्णसूरि - ४