________________
मुझे इस के संबंधमें तीव्र रुचि थी। इसके बाद इनकी (पू.पं.म.) निश्रामें ही रहकर जो लेखन-नोट हुई हैं, वह इस ग्रंथ के रूपमें बाहर पडा हैं । किंतु एक बात कह दूं : मात्र पढने - सुनने से नहीं चलेगा, वह जीवनमें उतारेंगे तभी उसकी झलक देखने मिलेगी।
मूल पाठ बहुत छोटा हैं । यहां बैठे हुए सभी मुनि ज्यादा से ज्यादा सप्ताहमें कण्ठस्थ कर दे इतना छोटा हैं । अर्थात् कण्ठस्थ करना कोई बड़ी बात नहीं हैं, परंतु जीवनमें उतारना बड़ी बात हैं ।
लिखते - लिखते भगवान मानो कृपा करते हो ऐसा मुझे बहुत बार लगा हैं । लिखते समय एक अद्भुत स्तोत्र 'अरिहाण स्तोत्र' (वज्रस्वामी शिष्य भद्रगुप्तसूरि रचित) हाथमें आया ।
प्रारंभमें भले हम जीवनमें उतार न सकें, परंतु हमारे पूर्वाचार्य ध्यान के कितने हिमायती होंगे? उस तरफ हमारा बहुमानभाव अगर जगे तो भी काम हो जाय । कुल चार लाख से अधिक ध्यान के भेद होंगे । इन सभी ध्यान के भेदोंमें से अरिहंत गुजरे हुए होते हैं ।
आज साधु-साध्वीजी के जीवनमें ध्यान की बहुत ही जरुरत हैं। उपमितिमें कहा : द्वादशांगी का सार क्या? 'सारोऽत्र ध्यानयोगः।' अर्थात् द्वादशांकी का सार सुनिर्मल ध्यान हैं । ऐसा सिद्धर्षिने लिखा हैं । ५५७वीं गाथा, उपमिति सारोद्धार - प्रस्ताव ८ ।।
मूल-उत्तरगुण वगैरह सभी बाह्य क्रियाएं हैं, ध्यानयोग को निर्मल बनानेमें सहायक हैं। मुख्य कार्य ध्यान हैं । कर्मक्षय हमारा ध्येय हैं । इस ध्येय से ही ध्यान सिद्ध होता हैं ।
. ध्यान की सिद्धि प्राप्त करनी हो तो सब से पहले चित्तकी प्रसन्नता चाहिए । कर्म का संपूर्ण क्षय और आत्मशुद्धि की संपूर्ण अभिव्यक्ति दोनों साथ में ही होते हैं। इसके लिये ध्यान चाहिए । ध्यान के लिये प्रसाद चाहिए । प्रसन्नता के लिये मैत्री आदि भाव चाहिए । पातंजल योगदर्शनमें भी यम-नियम लिये हुये हैं । उसके बाद ध्यान आता हैं । हमने शुक्ल ध्यानमें ही समाधि समाविष्ट की हैं । ध्यान से समाधि अलग नहीं दी हैं ।।
इस ग्रंथमें संपूर्ण विश्व के ध्यान के प्रकार आ जाते हैं । पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : प्रसाद याने ? पूज्यश्री : प्रसाद याने चित्त की प्रसन्नता ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४ 0oooooooooooooooooon ८५)