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__तथा बेडा-लुणावा बगैरह स्थानों में वे प्रवचनमें कछ खामी हो तो कहते । व्यवहारकी खामी हो तो निश्चयकी, निश्चयकी खामी हो तो व्यवहारकी बात करते ।
मैंने जो भी पुस्तकादि लिखे हैं, उन सभीमें आप शास्त्रपाठ देख सकोगे । अभी तो ऐसा आत्म-विश्वास हो गया हैं कि जो भी मैं बोलता हूं वह शास्त्र सापेक्ष ही होता हैं, शायद अभी शास्त्र पाठ न मिले तो बादमें भी मिल ही जाता हैं।
मैंने बहुतबार पू. पंन्यासजी म.की तरफसे उपालंभ भी सुना हैं । उन्होंने एकबार कहा था : आपको ध्यान-विचार के उपर लिखना अच्छा लगता हैं, किंतु 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।' पर क्यों लिखने का मन नहीं होता ? लगता है : प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आपका जन्म हुआ हैं । आज-कल के जीव ऐसे ही हैं : परोपकारकी बातें उन्हें पसंद ही नहीं आती ।
मैं जैसा बोलता हूं वैसा मेरा जीवन चौबीसों घण्टे नहीं होता । ऐसा जीवन जीया जाय तो काम हो जाय । मैं तो मानता हूं कि आप सभी के पुण्यका यह प्रभाव हैं कि मैं बोल सकता हूं । बाकी मुझे बोलना भी कहां आता हैं ?
__ आपकी तरफ से भेजी पुस्तक 'कहे कलापूर्णसूरि' मिल गयी हैं । पुस्तक भेजने के बदल आपका खूब खूब आभार । कई समय से पुस्तक प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे, बल्कि प्राप्त नहीं हो सकती थी, जो आपकी कृपा से हमें मिल गई हैं ।
- महासती
राजकोट
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