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जीवका लक्षण ही उपयोगमय हैं । 'उपयोगो लक्षणम् ।' इसका आधार यहां हैं । जिसका उपयोग हो, उसका परस्पर उपग्रह होता ही हैं । इसमें सभी जीव आ गये ।
* सभी ज्ञान तीर्थंकर से अनंतर या परंपर मिलता हैं । आपको जो ज्ञानादि मिले हैं, वह दूसरो को दें ।
जीव को ही ज्ञान दे सकते हैं, अजीव तो ले ही नहीं सकता । आप न आओ तो मैं खंभे को वाचना दे सकता हूं ?
अब प्रस्तुतमें आते हैं ।
प्रश्न : अजीवका अहित होता ही नहीं । तो भगवान अजीव के हितकारी कैसे हो सकते हैं ? अजीव को तो कोई पाप लगनेवाला ही नहीं हैं।
उत्तर : हम अजीव-विषयक असत्य बोलें तो हमें माया और मिथ्यात्व लगता हैं न ? द्रव्योंमें प्राणातिपातमें छसु जीवनिकायेसु लेकिन मृषावादमें 'सव्वदव्वेसु' क्षेत्रमें 'लोए वा अलोए वा ।' ऐसे पक्खिसूत्रमें लिखा है । सभी द्रव्यों का यथास्थित अस्तित्व स्वीकारना ही पड़ता हैं । कर्ताकी अपेक्षा से अजीवमें अयथार्थता आते उसे नुकसान हुआ । दिवारको पत्थर मारो तो उसे कुछ नहीं होता, किंतु शायद आपका सिर फूटे । दूसरों को गिराने खड्डा खोदो तो वह गिरे या न गिरे लेकिन आपके लिए कुंआ तैयार हो ही जाता हैं । धवल मारने गया, श्रीपाल भले न मरा, परंतु धवल सेठ स्वयं तो मर ही गया । यथार्थ प्रतिपादन न करने से जीवको यह बड़ा नुकसान होता हैं ।
सभी मूंग पक रहे हैं, उसमें कंकटूक मूंग भले न पके, परंतु वह पाककी क्रिया तो चालू ही रही न ? उसी तरह यहां अजीव विषयक भी समझें ।
अठारह हजार शीलांङ्गमें अजीव संयम भी बताया हैं । अजीव के प्रति भी जयणा रखनी हैं । ओघा अजीव हैं. फिर भी जीवरक्षामें मदद करता हैं ।
* भगवान लोकके प्रदीप हैं । दीपक बाह्य प्रकाश देता हैं । भगवान आंतरिक प्रकाश देते हैं । __ . छोटेसे बालकको हम सीखाते हैं और उसका ज्ञान धीरे-धीरे
(कहे कलापूर्णसूरि - ४ 00000000000000000000 ७७)