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________________ संक्रमण होगा । आज तक हमने अपने भीतर दोषों का ही संक्रमण किया है, क्योंकि हमने दोषों का ही विनय किया है । जो वस्तु हमें प्रिय है । वह हमें प्राप्त होती है। यदि दोष प्रिय लगते हैं तो दोष मिलते हैं और यदि गुण प्रिय लगते हैं तो गुण मिलते हैं । विनय के अभाव में न तो गृहस्थ-जीवन की शोभा है और न साधु-जीवन की । यदि एक भी अविनीत व्यक्ति आ जाये तो गृप की क्या दशा होती है ? हमें इसका अनुभव है । यह सब देखकर हमें निर्णय कर लेना चाहिये कि मैं किसी का अविनय नहीं करूंगा । यदि कोई दूसरा व्यक्ति अविनय करे तो हम कदाचित् उसे नहीं रोक सकें, लेकिन हमारे स्वयं का अविनय तो हम रोक ही सकते हैं न ? गृहस्थ पुरुषार्थ से धन की वृद्धि करते हैं तो क्या हमें विनय से विद्या आदि गुणों की वृद्धि नहीं करनी चाहिये ? विनीत व्यक्ति की सभी प्रशंसा करते हैं, परन्तु अविनीत की प्रशंसा क्या किसी ने की है ? इतना समझते हुए भी अविनय क्यों नहीं मिटता और जीवन में विनय क्यों नहीं आता ? जाणंता वि विणयं केइ कम्माणुभाव-दोसेणं । निच्छंति पउंजित्ता, अभिभूया रागदोसेहिं ॥ १६ ॥ अनेक व्यक्ति विनय को जानते हुए भी उसे जीवन में नहीं उतार सकते । कर्मसत्ता इतनी प्रबल होती है कि जीवन में उतारने की इच्छा ही नहीं होती । * अविनय, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि करके यदि किसी कार्य में सफलता प्राप्त करें और उन दोषों की सराहना करें तो समझ लें कि वे दोष कदापि जायेंगे नहीं, जन्मान्तर में भी वे आपके साथ आयेंगे । भगवान के पास गुणों का भण्डार है क्योंकि भगवान ने उनका आदर किया है । * राग-द्वेष मिथ्यात्व के कारण बढ़ता है और मिथ्यात्व के नाश से धीरे-धीरे राग-द्वेष घटते रहते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व दूर होने से जानकारी मिलती है कि ये राग-द्वेष ही मेरे भयानक शत्रु हैं, अन्य कोई नहीं । (कहे कलापूर्णसूरि - २00OOOOoooooooooooooo ४३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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