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________________ लाकडिया - पालिताना संघ, वि.सं. २०५६ १३-३-२०००, सोमवार फाल्गुण शुक्ला - ८ : बाष्पा * राधावेध की तरह विद्या की साधना करनी है जो विनय के द्वारा ही संभव है । अविनय के मार्ग पर बिना प्रेरणा के चला जा सकता है, परन्तु यहां तो प्रेरणा के पश्चात् भी चलना कठिन है । राधावेध साधने जैसा ही कठिन है । * उपयोग शुद्ध बनने पर ही योग शुद्ध बन सकता है । उपयोग समस्त जीवों के लिए स्वरूप-दर्शन लक्षण है । 'परस्परो पग्रहो जीवानाम् ।' यह समस्त जीवों के लिए सम्बन्ध - दर्शक लक्षण है । जब उपयोग मलिन होता है तब उपकार के बजाय अपकार होता है । जब शुद्ध उपयोग होता है तब अनायास ही उपकार होता ही रहता है । * तीर्थंकर इतने महान होते हुए भी किसी के पास बलपूर्वक धर्म नहीं कराते । विनय का उपदेश दिया जाये, परन्तु उसका बल-1 - प्रयोग नहीं हो सकता धर्म जबरजस्ती से नहीं आ सकता । (कहे कलापूर्णसूरि - २ 0000००० ३९
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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