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पू. हरिभद्रसूरिजी ने याकिनी साध्वीजी से प्रतिबोध पाया था । अपने पू. कनकसूरिजी म. भी साध्वीजी आणंदश्रीजी के द्वारा प्रतिबोध पाये हुए थे ।
* हरिभद्र भट्ट जब उपाश्रय के समीप से गुजरे तब स्वाध्याय का घोष सुना । आज यदि कोई उपाश्रय के समीप से गुजरे तो क्या सुनाई देगा ?
साध्वीजी ने श्लोक का अर्थ न बताकर उन्हें गुरु के पास भेजा । आज तो पहले अर्थ समझा दे और फिर 'जस' लेने के लिए प्रयत्न करे ऐसा तो नहीं होगा न ?
एक श्लोक का अर्थ जानने के लिए जो दीक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाये, उस हरिभद्र में जिज्ञासा-वृत्ति कितनी उत्कट होगी ?
अपने जैसे हों तो कह दें - ठीक हैं, मैं कहीं से भी जान लूंगा, पुस्तक में से देख लूंगा । एक श्लोक के खातिर क्या पूरा जीवन सौंप दूं ?
* हरिभद्रसूरि की कोई भी कृति व्यवहार एवं निश्चय से गर्भित है। प्रत्येक प्रकार से परिपूर्ण है । प्रत्येक बात में विधिपालन होता है । उचित दृष्टि, उचित आचार आदि का आग्रह ! ये सब उनकी कृति की विशेषताएं हैं ।
इन चैत्यवन्दन सूत्रों को सम्यक् प्रकार से समझोगे तो भगवान के प्रति अत्यन्त ही आदर उत्पन्न होगा । अभी तक हमने ये सूत्र कदापि देखे नहीं है । कदाचित् देखे होंगे तो मेरा कल्याण हो, मुझ में प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न हो, ऐसी दृष्टि से कदापि देखे नहीं है। अब इस दृष्टि से देखें । काम हो जायेगा ।
(कहे कलापूर्णसूरि-२0moooooooooooooooooo ५३७)