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में बसे हैं ।
* हम दूसरों को कब दे सकेंगे ? यदि अपने जीवन में होगा तो ही दूसरों को दे सकेंगे ।
अभी सभी समुदायों के महात्मा आये थे कि सामुदायिक प्रवचन का विषय क्या रखा जाये ? मैंने बताया कि मैत्रीभाव से प्रारम्भ करो, बाद में भक्ति पर रखना ।
इतना याद रखना कि हममें भावित हुआ होगा तो ही लोगो को असर कर सकेगा ।
* जगत् के समस्त ध्यान-ग्रन्थों से बढ़कर 'ध्यानविचार' ग्रन्थ अपने पास होते हुए भी अधिकतर लोगों का ध्यान उस ओर गया ही नहीं, यह भारी करुणता है । 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ प्रकाशित हो गया है, परन्तु ढूंढे ही कौन ?
कोई मुनि व्याकरण में, कोई काव्य में, कोई न्याय में अथवा कोई आगमों में अटक जाता है परन्तु ध्यान तक पहुंचने वाले विरले होते हैं ।
भाषाकीय ज्ञान के लिए व्याकरण है । भाषाकीय ज्ञान से साहित्य का ज्ञान, साहित्य के ज्ञान से आगम-ज्ञान और आगमों के ज्ञान से आत्म-ज्ञान बढकर है ।
ध्यान के बिना आत्मा तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं है। आत्मा तक नहीं पहुंच सकें तब तक सब अधूरा है ।
* हिंसा आदि को उत्पन्न करनेवाले क्रोध आदि हैं । इसीलिए हिंसा आदि से क्रोध आदि खतरनाक है ।
क्रोध से हिंसा, मान से मृषा, माया से चोरी और लोभ से काम-परिग्रह बढ़ते रहते हैं ।
क्रोध मूल है, हिंसा फल है । मान मूल है, मृषावाद फल है । माया मूल है, चोरी फल है । लोभ मूल है, अब्रह्म-परिग्रह फल है ।
* भैंस के समक्ष भागवत पढ़ने के लिए कौन तैयार होगा ? अधिक बोलने का स्वभाव हो और कोई श्रोता न हो वैसा मूर्ख ही कदाचित् तैयार होगा ।
[कहे कलापूर्णसूरि - २ooooooooooooooooooo ५३३)