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मनफरा (कच्छ) में अंतिम पदार्पण, वि.सं. २०५६
१७-७-२०००, सोमवार श्रा. कृष्णा-१ : पालीताणा
* दीर्घ काल तक जीव धर्म-शासन प्राप्त करे, उस तीर्थस्थापना के पीछे भगवान का लक्ष्य है। यह लक्ष्य पूर्व के तीसरे भव में ही निर्धारित हो चुका था ।
जो आनन्द मैंने प्राप्त किया है, वह दूसरे भी क्यों न प्राप्त करें? मुझ में आनन्द है, उस प्रकार सभी जीवों में भी आनन्द है ही, फिर भी जीव दुःख में रहें यह कितनी करुणता है ? "मैं सबको भीतर रहे हुए आनन्द के भण्डार का बोध कराऊं - ऐसी भव्य भावना के योग से भगवान ने तीर्थंकर नामकर्म बांधा है।
* हमें आनन्द-प्राप्ति की इच्छा होती है, क्योंकि अपना मूलभूत स्वरूप आनन्दमय है। भीतर आनन्द न हो तो आनन्द की इच्छा नहीं होती ।
* आनन्द अपने भीतर से ही आयेगा, परन्तु फिर भी गुरु या भगवान के द्वारा प्राप्त हुआ कहा जाता है । इसमें कृतज्ञता है।
* हम आनन्दमय होते हुए भी इस समय दुःखी हैं, क्योंकि भीतर राग-द्वेष की आग लगी है। हम स्वभाव से हटकर विभाव (५३२0momooooooooooooomnm कहे कलापूर्णसूरि - २)