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________________ किये हुए धर्म के संस्कार । * ऊपर की (सात राज की) सिद्धशिला दूर नहीं है, भीतर रही हुई सिद्धशिला ही दूर है । आप भीतर की सिद्धशिला पर बैंठे, भीतर मोक्ष प्रकट करें, फिर ऊपर की सिद्धशिला कहां दूर है ? यह तो केवल एक समय का कार्य हैं । भीतर के मोक्ष को प्रकट करने का प्रयत्न किये बिना हम बाहर के मोक्ष के लिए प्रयत्न करते रहते हैं । * 'मन की शक्ति केवलज्ञान जितनी है ।' ऐसा हरिभद्रसूरिजी ने कहा है । केवलज्ञान से भी बढ़कर मनकी शक्ति है । प्रश्न केवलज्ञान से मन कैसे बढ़ता है ? उत्तर भोजन का मूल्य अधिक या तृप्ति का ? भोजन करो तो तृप्ति कहां जायेगी ? महत्त्व की बात भोजन की है । भोजन प्राप्त हो जाये तो तृप्ति दौडती हुई आयेगी । इसीलिए हम तृप्ति के लिए नहीं, भोजन के लिए प्रयत्न करते हैं । मुक्ति की साधना भोजन है । केवलज्ञान और मुक्ति तृप्ति हैं । मुक्ति की साधना में मुख्य सहायक मन है । मन के बिना क्या केवलज्ञान मिल सकता है ? इस अपेक्षा से केवलज्ञान से भी मन बढ़कर है । - पू.पं. कल्पतरुविजयजी म. केवलज्ञान के लिए तो मन से भी पर होना पड़ता है । पूज्यश्री क्यों भूलते हैं ? जानते हैं न ? - मन से पर होने से पूर्व मन चाहिये ही, यह मन रहित प्राणी मन से पर नहीं हो सकते, यह मारवाड़ में आवश्यक निर्युक्ति में पढ़ा था कि 'केवलज्ञान से भी मन अधिक शक्तिशाली है ।' तब मैं अत्यन्त प्रसन्न हो गया था । मन यदि इतना शक्तिशाली हो तो इसे ही क्यों न पकड़ लें ? परन्तु याद रहे कि मन पकड़ने से पूर्व काया एवं वचन पकड़ने पड़ेंगे । सीधा ही मन हाथ में नहीं आयेगा । पहले काया एवं वचनों को पवित्र एवं स्थिर करें । उसके बाद मन पर ध्यान केन्द्रित करें । कहे कलापूर्णसूरि - २ WOW... ५१७
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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