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'करेमि भंते' में 'सावज्जं' शब्द के द्वारा अठारहों पापस्थानको का परित्याग किया हुआ ही है ।
'चंदाविज्झये विनय - गुणे वडो धन्नोरे" वीरविजयजी ने पूजा में गाया है । जबसे यह पंक्ति पूजा में पढ़ी थी तबसे ही मन में था कि यह ग्रन्थ पढ़ना है और अठारह वर्ष पूर्व सांतलपुर में इस ग्रन्थ की प्रत हाथ में आई ।
विनय करें, विनीत बनें, तब मैं आपको मोक्ष का प्रमाणपत्र देने के लिए तैयार हूं ।
जो गुरु का पराभव करता है, वह कदम-कदम पर स्वयं पराभव का स्थान बनता ही है ।
कठोरकर्मी जीव ही ऐसा करता है । अन्य को ऐसी बुद्धि ही नहीं सुझती ।
शीघ्रता में अविनीत को दीक्षा प्रदान कर दी जाती है और बाद में समस्याएं उत्पन्न होती हैं, फिर उसका कोई उपाय नहीं हो सकता । असाध्य रोग के लिए कुशल एवं योग्य वैद्य भी क्या कर सकता है ?
विनय प्राप्त करने के लिए अहंकार का नाश करना आवश्यक है । 'गुरु से मुझ में क्या अधिक है ? ज्ञान, ध्यान, बुद्धि...... क्या अधिक है ?" इस प्रकार स्वयं को प्रश्न करें ।
यदि गुणों से अपूर्ण हैं तो अभिमान किस बात का ? गुणों से जो पूर्ण हो उसे तो अभिमान होता ही नहीं । अहंकारी व्यक्ति ही अपनी प्रशंसा एवं दूसरे की निन्दा हो ऐसा प्रयत्न करता है ।
विनयपूर्वक गुरु से ज्ञान प्राप्त करो तो यश फैलेगा । आप विश्वासी बनें, स्वीकार्य बनें, श्रद्धेय बनें ।
छेदसूत्रों में से उदाहरण
पिता-पुत्र ने साथ-साथ दीक्षा ग्रहण की । बाल-मुनि अविनयी एवं उद्धत होने के कारण उन्हें गच्छ से बाहर कर दिया गया । पिता उत्तम थे, परन्तु पुत्र-मुनि के कारण सबकी समाधि हेतु बाहर गये । वे अन्य गच्छों में से भी निर्वासित हुए ।
बाल-मुनि के मन में एक दिन विचार आया 'अरे रे ! कहे कलापूर्णसूरि-२ क
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