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के भी माता-पिता हैं ।
चार प्रकार के श्रावक कहे गये हैं ।
माता-पिता, भाई, मित्र एवं सौतन जैसे ( सौतन जेसे श्रावक साधुओं के मात्र दोष ही देखते रहते हैं ।)
आज भी श्री संघ में श्रमण संघ के प्रति इतना सम्मान विद्यमान है कि ऐसे भयंकर काल में भी जैन साधुओं को खाने, पीने, रहने या पहनने की चिन्ता करनी नहीं पड़ती ।
यह तीर्थंकरो का प्रभाव है । उनकी आज्ञा अमुक अंशों में भी पालन करते हैं, उसका प्रभाव है; इस तरह निरन्तर लगना चाहिये । ऐसा भी होता है कि वहोराने वाले पहले तर जायें और लेने वाले रह जायें । कुमारपाल का मोक्ष निश्चित है, हेमचन्द्रसूरिजी का मोक्ष अनिश्चित है । कौन पहला ? कौन अन्तिम ? यह तो अन्त में आन्तर परिणाम पर आधारित है ।
आंखें देखती है परन्तु देखने वाला कौन है ? कान सुनते है परन्तु सुनने वाला कौन है ? पांव चलते है परन्तु चलने वाला कौन है ? देखने वाले, सुनने वाले, चलने वाले उस आत्मा को ही हम भूल गये हैं । देह के पोषण में आत्मा का शोषण हो रहा है, कुछ समझ में आता है ?
आत्मा के भोजन के लिए कभी सोचा है ? आत्मा के भोजन के लिए तृप्ति अष्टक पढ़ें...। प्रथम श्लोक ही देखो
पीत्वा ज्ञानाऽमृतं भुक्त्वा क्रिया सुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृतिं याति परां मुनिः ॥
ज्ञानसार, १०-१
पैंतालीस आगम पढ़ने से भी हमें जो न मिले (क्योंकि हमारे पास वैसी दृष्टि नहीं है) वह इस एक श्लोक में मिल जाता है । भोजन में मिठाई नहीं मिले तो नहीं चलता, तो यहां ज्ञान एवं भक्ति के बिना कैसे चले ? भक्ति एवं मैत्री आत्मा की मिठाई है ।
वि. संवत् २०१६ में आधोई के उपधान में 'गुलाब जामुन' कहे कलापूर्णसूरि २ क
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