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________________ ऊड गया पंखी पड़ रहा माला, वि.सं. २०५८, माघ शु. ४, केशवणा (राज.) ११-७-२०००, मंगलवार आषाढ़ शुक्ला-१० : पालीताणा * तारता है वह तीर्थ है। जिसके आलम्बन से तरा जा सके वह तीर्थ है । द्वादशांगी, चतुर्विध संघ एवं प्रथम गणधर तीर्थ इस समय इन तीनों में से गणधर भले ही नहीं हैं, परन्तु उनका परिवार विद्यमान है । इस तीर्थ की सेवा करो, मोक्ष हथेली में हैं। 'तीरथ सेवे ते लहे, आनंदघन अवतार ।' - पू. आनंदघनजी * एक ओर हम आनन्द के लिए भटकते हैं, परन्तु आनन्ददायक उपायों से दूर रहते हैं । वास्तव में तो आनन्द का पिण्ड अपने भीतर ही पड़ा है। एक ही आत्म-प्रदेश में इतना आनन्द है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में नहीं समाये, परन्तु हम उसे देख नहीं सकते, अनुभव नहीं कर सकते । इसीलिए अन्यत्र भटक रहे हैं । * उद्यान अथवा वाटिका पानी की नीक के बिना हरेभरे नहीं रहते, उस प्रकार श्रद्धायुक्त ज्ञान न हो तो आत्म-गुणों (४९६ 800 wasana कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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