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________________ और साधक का मन तुरन्त ध्यान में लीन हो जाता है । यहां शुभ ध्यान में मन लीन हो जाता है, इसीलिए कहा गया कि इस गिरिराज की स्पर्शना दुर्गति को रोकती है । * यह वाचना किस लिए हैं ? मैं आपके लिए नहीं, अपने लिए देता हूं । किसी पर प्रभाव न पड़ें तो भी मैं निराश नहीं होऊंगा । अपना बोला हुआ मैं स्वयं तो सुनता ही हूं न ? यहां जो कहा जा रहा है, उसे मैं अपने जीवन में उतार कर कहता हूं अथवा जीवन में उतारने का प्रयत्न करता हूं । यहां मैं अनेक बार आया, परन्तु प्रत्येक बार प्रभु के समक्ष प्रार्थना करता ही हूं । बचपन में भी मैं प्रभु को प्रार्थना करता 'प्रभु ! मेरे योग्य कुछ अवश्य दें ।" ये सब शास्त्र की बाते मैं जिस प्रकार समझा हूं, उस प्रकार आपको परोसने का प्रयत्न करता हूं । इस जिनवाणी को आदर पूर्वक सुनें । सम्यग्दर्शन मिल जाये तो सुना हुआ सार्थक है । यह नहीं तो मार्गानुसारी में आ जायें अथवा प्रथम दृष्टि में प्रवेश हो जाये तो भी सुना हुआ सार्थक है । 1 * सूर्य, चन्द्रमा, बादल अथवा नदी इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वे अन्यों के लिए उपकारी बनते हैं । आप अपने स्वयं के लिए कितना करते हैं ? यह महत्त्वपूर्ण नहीं है । आप दूसरों के लिए कितना करते हैं, यही महत्त्वपूर्ण है । परोपकार की प्रधानता अधिक, उस प्रकार लोगों में आपकी आदेयता अधिक । इसी कारण से अरिहंत सिद्धों से प्रथम गिने गये हैं । अरिहंत के पास परोपकार की उत्तम सम्पदा है । * विशेषावश्यक भाष्य में लिखा है कि जोर से छोडे गये शब्द चार समय में सम्पूण लोक में फैल जाते हैं । अनन्त वीर्यवान भगवान बोलते होंगे तो अनायास ही उनके बोले हुए वचन अखिल विश्व में फैल ही जाते होंगे । हमें भी इन पवित्र पुद्गलो का स्पर्श हुआ ही होगा, परन्तु यह भाव समझने के लिए 'पाण्डित्य' चाहिये । ज्ञानियों की दृष्टि में हम 'बालक' हैं । लोगों की दृष्टि में भले चाहे जितने योग्य पण्डित गिने जाते हों । बड़ा व्याकरण का ज्ञाता I कहे कलापूर्णसूरि २ ४७५
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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