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दक्षिण भारत में प्रतिष्ठा प्रसंग
७-७-२०००, शुक्रवार आषाढ़ शुक्ला-६ : पालीताणा
* स्वाध्याय बढ़ने के साथ ज्ञान बढ़ता है । ज्ञान बढ़ने पर गिरिराज को पहचानने लगते हैं, प्रभु पहचानने लगते हैं । प्रभु को पहचानना सिखाये, वही सच्चा ज्ञान है ।
* गिरिराज की स्पर्शना मात्र से भव्यता की छाप लगती है । प्रभु के स्नात्र-जल में या पुष्पों में जिस प्रकार भव्य जीव होते हैं, वैसे ही यहां भव्य जीव ही आ सकते हैं ।।
यहां पर्वत नहीं, परन्तु कंकर-कंकर पर सिद्ध दिखाई देने चाहिये । अभी दस वर्षों के बाद वलभीपुर के बाद प्रथम बार गिरिराज के दर्शन हुए, हृदय में आनन्द की लहरे उठी, परन्तु ऐसे भाव सदा के लिए स्थायी नहीं रहते । यदि स्थायी रहें तो किसी शास्त्र अथवा उपदेश की आवश्यकता भी नहीं पड़े ।
यहां छोटे बालकों से लगा कर बड़ों तक सब अपने शुभ भाव व्यक्त करके जाते हैं - "देखी मूर्ति ऋषभ जिननी नेत्र मारा ठरे छे" इस प्रकार स्तुति गाते छोटे बालक के अन्तर में भी अपार भाव होते हैं । ये सब शुभ विचारों के परमाणु यहीं एकत्रित होते रहते हैं । इसीलिए यह क्षेत्र अधिकाधिक पवित्र बनता रहता है (४७४ 0 Romwwwmommmmm कहे कलापूर्णसूरि - २)