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परन्तु हमें वह खाना-पीना चाहिये । भगवान द्वारा कथित कुछ करना नहीं और केवल भगवान सब कर देंगे, ऐसे भरोसें में रहना निरी आत्म-वंचना होगी ।
सब भगवान पर छोड़ना नहीं हैं । हमें साधना करनी है ।
सूर्य का कार्य प्रकाश देना है। आंखें तो हमें ही खोलनी पड़ेगी न ? माता का कार्य सीरा बनाकर देना है । खाना तो हमें ही पड़ेगा न ? भगवान ने मार्ग बताया, परन्तु चलना तो हमें ही पड़ेगा न ?
__ भक्ति का अर्थ निष्क्रिय हो कर बैठना नहीं है । भक्ति अर्थात् प्रेमपूर्ण समर्पण । जहां समर्पण होगा वहां सक्रियता अपने आप आ जायेगी । प्रेम कदापि निष्क्रिय बैठा नहीं रहता ।
* भद्रबाहु स्वामी जैसे चौदह पूर्वधर बालक बन कर प्रभु को प्रार्थना करते हैं कि चिन्तामणि, कल्पवृक्ष आदि बाह्य पदार्थ देते हैं, वह भी चिन्तन करने के पश्चात् देते हैं, परन्तु हे प्रभु ! तेरा यह समकित तो अचिन्त्य चिन्तामणि है। बिना विचारे इसके द्वारा पार्थिव नही, अपार्थिव गुण मिलते हैं; भौतिक नहीं, आध्यात्मिक सम्पत्ति प्राप्त होती है ।
हे प्रभु ! पूर्ण भक्ति से भरे हृदय से मैं तेरे समक्ष प्रार्थना करता हूं । देव ! मुझे भवोभव बोधि देना ।
भवोभव साथ चले ऐसा यह बोधि है, सम्यग् दर्शन है । चारित्र साथ नहीं चलता ।
प्रभु ! भवोभव मुझे तेरे चरणों की सेवा प्रदान कर । प्रभु के चरणों की सेवा अर्थात् सम्यग् दर्शन ।
* पुरुषार्थ तो हम बहुत करते हैं, परन्तु फलता क्यों नहीं है ? क्योंकि भक्ति नहीं है, इसलिए । इसीलिए मैं भक्ति पर, समर्पण पर बल देता हूं । भगवान की भक्ति सम्मिलित हो जाये तो ही अपना पुरुषार्थ फलता है ।
(हिन्दी भाषी लोको के कारण से पूज्यश्री ने हिन्दी मे शुरु किया।) नाम आदि भगवान की शाखाएं हैं ।
मोतीलाल बनारसीदास वाले नरेन्द्रप्रकाशजी को पूज्यश्री ने पूछा, "आपकी शाखाएं कहां कहां हैं ? (४७२omwwws
कहे कलापूर्णसूरि - २