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________________ हरिभद्रसूरिजी की सुविशाल प्रज्ञा थी । अब तक जितने ग्रन्थ पढ़े उनमें कहीं भी एक पंक्ति भी निश्चय-व्यवहार से निरपेक्ष नहीं मिली । षोडशक में जिनालय के लिए लकड़ा लाना हो तो भी मुहूर्त देखें, लकड़े के लक्षण देखें, उसमें गांठ, पोल आदि न हों वह देखें । ऐसी बारीक-बारीक बातें भी उन्होंने लिखी हैं । हरिभद्रसूरिजी स्वयं आगम - पुरुष थे । इसीलिए उनके ग्रन्थ भी आगम-तुल्य गिने जाते हैं । आगमों पर सर्व प्रथम टीका लिखने वाले वे ही थे । उन्होंने सर्व प्रथम आवश्यकों पर टीका लिखी । दशवैकालिक पर भी टीका लिखी । इस समय टीका उपलब्ध है वह लघुवृत्ति है । बृहद् वृत्ति तो उपलब्ध ही नहीं है । स्तव-परिज्ञा, ध्यान- शतक उनके मित्रा, तारा, बला और दीप्रा हरिभद्रसूरि ने अपुनर्बंधक में किया है । द्वारा लिखे हुए ग्रन्थ-रत्न है । इन चारों दृष्टियों का समावेश * शुभ भावों की अखण्ड धारा चले, धर्मानुष्ठानों में अमृत का आस्वादन हो, विषयों से विमुखता आये वह धर्माराधना में प्रगति हो रही है इसके चिन्ह हैं । करने से पूर्व क्या सोंचे ? * भगवान का स्तवन हरिभद्रसूरिजी सिखाते हैं मुझे आज तीन लोक के गुरु अचिन्त्य चिन्तामणि, एकान्त शरण रूप, त्रैलोक्य- पूजित स्वामी मिले हैं । मेरा कैसा पुन्य ? यह बहुमान ही धर्म का बीज है । यह प्रेम मात्र मन में ही नहीं, वचन एवं काया में भी उत्पन्न होता प्रतीत होता है । - प्रभु-प्रेम का यह बीज ही आगे बढ़ने पर पांचवी दृष्टि में सम्यक्त्व रूपी वृक्ष बनता है । ( कहे कलापूर्णसूरि २ 'उवसग्गहरं' भले छोटा सा स्तोत्र है, परन्तु बडे स्तोत्रों का पूरा भाव इसमें छिपा हुआ है । उसमें समकित को चिन्तामणि, कल्पवृक्ष से भी अधिक मूल्यवान गिनाया है । भोजन में भूख मिटाने की शक्ति है । पानी में प्यास मिटाने की शक्ति है । Wwwwwww कळ ४७१
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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