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११ दीक्षा प्रसंग, भुज, वि.सं. २०२८, माघ शु. १४
६-७-२०००, गुरुवार आषाढ़ शुक्ला-५ : पालीताणा
* साक्षात् भगवान चाहे नहीं मिले, परन्तु उनका धर्म मिला है । उस धर्म का पूर्णरूपेण पालन साधु करते हैं । उस मार्ग पर चलने में जो असमर्थ हैं वे श्रावक-धर्म का पालन करते हैं । ऐसी सामग्री तो मिली है, परन्तु हम सदुपयोग कितना करते हैं ? यदि सदुपयोग नहीं हुआ तो दूसरी बार वह नहीं मिलेगी, यह नियम है ।
* जहाज में होने वाले छेदों की उपेक्षा करें तो पूरा जाज डूब जाये । संयम में लगनेवाले अतिचारों की यदि उपेक्षा करें तो धीरे-धीरे सम्पूर्ण संयम चला जायेगा ।
* दुःख के समय चिन में उद्वेग होता है, परन्तु हम जानते नहीं हैं कि इसे सहन करने से तो पूर्व की असाता खपती है।
यदि यह दृष्टि विकसित हो जाये तो ?
साधु को असाता उदय में क्यों आये ? मैं कहता हूं, साधु को भी उदय में आती है, क्योंकि कर्मसत्ता समझती है कि ये साधु तो जल्दी-जल्दी मुक्ति की ओर आगे बढ़ रहे हैं तो शीघ्र इनका हिसाब चूकता कर लें ।
देखो, परम तपस्वी पू. कान्तिविजयजी म. को अन्त में कैन्सर [कहे कलापूर्णसूरि-२ Booooooooooooooooom ४६९)