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११ दीक्षा प्रसंग, भुज, वि.सं. २०२८, माघ शु. १४
५-७-२०००, बुधवार
आषाढ़ शुक्ला - ४ : पालीताणा
स्वयं में रहे हुए शाश्वत ज्ञान, आनन्द एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए यह धर्म-साधना है । इसके लिए ही भगवानने तीर्थ स्थापना की है । "मुझे जो मिला है वह मार्ग सबको मिले । ऐसा मार्ग होते हुए भी जीव मार्ग-भ्रष्ट होकर क्यों भटकते हैं ? औषधि होते हुए भी क्यों रोगी रहें ? पानी होते हुए भी क्यों प्यासे रहें ? भोजन होते हुए भी क्यों भूखे रहें ? दुःख निवारण करने का उपाय होने पर भी क्यों दुःखी रहें ? मेरा चले तो मैं सबको सुखी करूं, सब को शाश्वत सुख का मार्ग बताऊं ।" ऐसी भव्य भावना से बंधे हुए तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से भगवान ने तीर्थ की स्थापना की है ।
* नदी में टकराता - पछाड़े खाता पत्थर अपने आप गोल हो जाता है । हमें यही प्रतीत होता है कि किसी शिल्पी ने इसे गोल बनाया होगा । हमारी आत्मा भी इस प्रकार संसार में टकरातीपछाड़े खाती कुछ योग्य बनती है । ७० कोटाकोटि सागरोपम में से ६९ कोटाकोटि सागरोपम कम करके अन्तः कोटाकोटि सागरोपम की मोहनीय की कर्म की स्थिति बनती है, तब यथाप्रवृत्तिकरण
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