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जो ऐसी पूर्ण-दृष्टि के कारण ।
सृष्टि नहीं बदलती । सृष्टि तो वैसी ही रहती है, परन्तु हमारी देखने की दृष्टि बदलती है । ज्यों ज्यों दृष्टि बदलती रहती है त्यों त्यों सृष्टि भी बदलती रहती है । सृष्टि का आधार हमारी दृष्टि पर
"प्रगट्यो पूरण राग... मेरे प्रभु शं...
पूरण मन सब पूरण दीसे,
नहीं दुविधा को लाग; पांउ चलत पनहि जो पहिने,
तस नवि कंटक लाग..." यह पूर्ण दृष्टि से दिखाई देती सृष्टि का शब्द-चित्रण है ।
पूर्णता की दृष्टि प्राप्त करने के लिए मग्नता चाहिये । उस के लिए स्थिरता चाहिये । बाद-बाद के अष्टक पूर्व-पूर्व के गुणों की प्राप्ति के कारण हैं, यह समझ में आये बिना नहीं रहे ।
* देहाध्यास टालना है, परन्तु देह के बिना कुछ भी दिखाई नहीं देता, करना क्या ? ऐसा प्रश्न होता हो तो मैं कहूंगा - आप प्रभु को सामने रखो । प्रभु का स्मरण करो, प्रभु की पूजा करो । प्रभु को जपो । प्रभु का स्मरण करना, पूजना, भजना मतलब अपनी ही आत्मा का सुमिरन करना, पूजना और भजना ।
यहां जो कमाई होगी वह भगवान हमें ही दे देंगे । वे उसे अपने पास रखने वाले नहीं है ।
काउस्सग्ग मानसशास्त्री मानते हैं कि मस्तक के दस भागों में से एक भाग जागृत है, नौ भाग सुप्त हैं । कायोत्सर्ग से सुषुप्त शक्ति जागृत होती है।
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