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भक्त को अनुभव होता है कि भगवान मुझे बुला रहे हैं, मेरा आलिंगन कर रहे हैं । प्रभु मेरे अंग-अंग में फैल रहे हैं । उपा. यशोविजयजी का यह स्वानुभव असत्य तो नहीं होगा । पू. पं. भद्रंकरविजयजी म. भले भौतिक देह से उपस्थित नहीं है, परन्तु वे गुण - देह से उपस्थित हैं । भौतिक देह तो भगवान का भी स्थिर नहीं रहता ।
भरत क्षेत्र के मनुष्यों का क्या ? ऐसे प्रश्न के उत्तर में सीमंधर स्वामी ने इस शाश्वत गिरिराज को परम आलम्बन - भूत गिनाया है ।
इस गिरि की स्पर्शना, अर्थात् अनन्त सिद्धों की स्पर्शना । गिरिराज पर मन्दिरों की श्रेणि अर्थात् केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का स्थान (आवास: केवल श्रीणाम् ) कहा है। यहां पूजा करने वाला गृहस्थ दरिद्र नहीं होता ।
अनेक व्यक्ति कहते हैं जैन इतने धनाढ्य क्यों हैं ? वे जान लें कि जैन भगवान की पूजा छोड़ते नहीं हैं । पूजा नहीं छूटती वहां से लक्ष्मी भी नहीं छूटती । पूजा पुन्य का परम कारण है । लक्ष्मी पुन्य से बंधी हुई है ।
'दुर्गं धर्म
नरेशितुः ।'
यह मन्दिर - श्रेणि अर्थात् धर्म राजा का किला | चित्तौड़गढ़ का किला ( आज भी यह किला विद्यमान है, हम वहां गये भी हैं ।) देखा है न ? वहां गये हुए को शत्रु का भय नहीं होता । मन्दिर में मोह का भय नहीं सताता । यह तो मन्दिर के बाहर निकल कर जहां आप जूते पहनते हैं वहीं उसमें छिपे मोह के गुण्ड़े आपके हृदय में प्रविष्ट हो जाते हैं ।
मन्दिर में जाकर भगवान के साथ पूर्णतः एकाकार हो कर देखें । इस काल में भी आप समाधि तक पहुंच सकते हैं ।
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बीजानाम् ।'
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क्षेत्रं सुबुद्धि
भगवान का मन्दिर अर्थात् सद्बुद्धि के बीज को बोने का
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खेत । बीज बोया हुआ हो तो उगेगा ही ।
'निधानं ध्यान
सम्पदाम् ।' जिनालय ध्यान की सम्पत्ति का निधान है ।
इसका अनुभव करना हो तो ओसिया, सेवाड़ी आदि स्थानों
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कहे कलापूर्णसूरि- २
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