________________
तेरा आलिंगन करना चाहता हूं। मैं तेरी आंखो में आंखे डाल कर तुझे पहचानना चाहता हूं।'
इस प्रकार साधु मृत्यु के लिए सदा तैयार ही होता है । संथारा पोरसी अर्थात् मृत्यु की तैयारी ।
देह का नाश है, मेरा कहां नाश है ? देह अनित्य है, मैं तो नित्य हूं ।
'सडण-पडण' पुद्गल का लक्षण है, मेरा नहीं । मैं तो अक्षयअविनाशी आत्म-तत्त्व हूं। पुद्गलों के लक्षणों से मेरे लक्षण सर्वथा भिन्न हैं ।
देह जले उसमें मेरा क्या ? शरीर साधना में सहायक बना यह सही है, अन्यथा शरीर 'पर' है ।
देह यदि छूट जायेगा तो भी चिन्ता किसकी ? मोक्ष नहीं मिले तब तक देह तो पुनः-पुनः मिलने वाला ही है । बस, इतनी ही अपेक्षा रहती है । जब यह देह छूट रहा हो तब हृदय में प्रभु का स्मरण होता हो, नवकार का रटन होता हो ।
शशीकान्तभाई - आपके और हमारे बीच अत्यन्त दूरी न हो जाये ।
पूज्यश्री - इतने समीप तो आप आ गये हैं । अब भी समीप आओ तो कौन रोकता है ?
__कौन समीप, कौन दूर ? इसका निर्णय कौन करेगा ? सुलसा दूर थी, तो भी निकट थी । गोशाला निकट था तो भी दूर था ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. की अन्तिम अवस्था थी । हम अन्त में उन्हें पाटन में मिले । पूज्यश्री का स्वास्थ्य देखकर यों तो रुक जाने की ही इच्छा हुई, परन्तु वि. संवत् २०३६ का बेड़ा का कार्यक्रम निश्चित हो गया था, अतः जाना पड़ा । बेड़ा से लौटते समय प्रथम मासिक तिथि पाटन में थी । अन्य सभी भक्त रूदन कर रहे थे
और कहते थे - अब क्या होगा? परन्तु मैंने कहा - 'पू. पंन्यासजी म. गये, यह बात ही मिथ्या है। वे तो भक्तों के हृदय में बिराजमान
विशेषावश्यक में लिखा है कि जिस शिष्य के हृदय में गुरु हैं, उसको कभी वियोग होता ही नहीं है । गुरु की सभी शक्ति (४४८Wooooooooooooooooom कहे कलापूर्णसूरि - २)