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किस प्रकार उस पार पहुंचूंगा ?
संसार चाहे जितना भयंकर हो, परन्तु इस तीर्थ के जहाज में बैठने वाले को भय कैसा ?
'बापलडां रे पातिकडां तुमे शंकरशो हवे रहीने रे ? श्री सिद्धाचल नयणे जोतां, दूर जाओ तुमे वहीने रे ।'
इस तीर्थ की स्पर्शना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हमें भव्यत्व की छाप लगी । दुर्भव्य तो उसकी स्पर्शना पा सकता नहीं है।
दूसरा लाभ - दुर्गति का भय गया । तीसरा लाभ - समकित मिला ।।
इस शाश्वत गिरिराज की स्पर्शना जैसा उत्तम निमित्त मिलने पर भी समकित नहीं मिले तो हो चुका ।
* शक्कर में मधुरता, वस्त्र में सफेदी अभेद भाव से है, उस प्रकार आत्मा में गुण अभेद भाव से विद्यमान हैं । ज्ञान, आनन्द आदि गुण अपने भीतर ही अभेद भाव से हैं, फिर भी हम उन्हें पराये मानते हैं और पराये वर्ण, गंध आदि को अपना मानते हैं । यही मोह है, यही अविद्या है ।
गुरु ने तो केवल पहचान के लिए नाम दिया, परन्तु हम तो उस नाम को 'मैं' मान बैठे । उसकी कोई प्रशंसा करे तो प्रसन्न, निन्दा करे तो अप्रसन्न हो जाते हैं । नाम से पर मेरा अस्तित्व है, यह बात ही भूल गये ।
* साधना हमें लागू नहीं पड़ती क्योंकि हमने भगवान की शरण स्वीकार नहीं की है ।
वानर-शिशु मां को लिपट कर रहता है और मां जहां जाती है वहां पहुंच जाता है । यह ज्ञानी का प्रभु को समर्पण है, ज्ञानी प्रभु को पकड़ता है ।
मार्जार-शिशु को बिल्ली (मार्जारी) मुंह में पकड़ कर ले जाती
यह भक्त का प्रभु को समर्पण है, भक्त को भगवान पकड़ते हैं । प्रभु को कह दें - अन्यथा शरणं नास्ति ।
तारोगे तो आप ही तारोगे, मुझे अन्यत्र कहीं भी नहीं जाना है।
'देशो तो तुमहि भलुं, बीजा तो नवि याचूं रे ।' (कहे कलापूर्णसूरि - २00amaasee500 0 00 ४४३)