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तो भवो भव खराब ।
* शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिकता-सम्यक्त्व के लक्षणों का यह क्रम प्रधान रूप से है । उत्पत्ति में उत्क्रम से समझें अर्थात् पहले आस्तिकता (श्रद्धा) उत्पन्न होती है। श्रद्धा में से क्रमशः अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग जागृत होता हैं । इन सबके फल स्वरूप अन्त में शम-प्रशम की प्राप्ति होती है ।
आस्तिकता मूल है, शम फूल है । आस्तिकता नींव है, शम अगासी है। आस्तिकता तलहटी है, शम शिखर है । आस्तिकता खनन मुहूर्त है, शम प्रतिष्ठा है ।
* साधना की पूर्व भूमिका के रूप में अभय, अद्वेष, अखेद ये तीन गुण प्रकट होते हैं ।
जो दूसरे को अभय देता है वह स्वयं भी अभय रहता है। दूसरे को भय देनेवाला स्वयं भी भयभीत रहता है ।
गुण्डे, आतंकवादी, जुल्मी नेता इसीलिए भयभीत होते है। योगी जंगली-हिंसक प्राणियों के मध्य भी निर्भय होते हैं ।
गिरनार के सहसाम्र वन में अपने एक जैन साधक बन्धु गुफा में ध्यान-लीन थे। एक वाघिन वहां सपरिवार आई । साधक तनिक भी डरे बिना वहीं बैठे रहे । वाघिन या उसके बच्चों ने कुछ भी नहीं किया और वहां से चले गये । "अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर-त्यागः ।"
- पातंजल योगदर्शन पतंजलि कहते हैं कि अहिंसा की सिद्धि जिसके जीवन में हो गई हो, उसके पास जाते ही हृदय में विद्यमान वैर भावना नष्ट हो जाती है ।
सिद्धि उसे ही कही जाती है जो आप दूसरे में उतार सको। अहिंसा की सिद्धि तो ही गिनी जायेगी यदि आपके पास आनेवाला अहिंसक बन जाये ।
* गृहस्थों में भी दान-उदारता के गुण कैसे उत्कृष्ट होते हैं ? सुनकर आश्चर्य होता है ।
हमारे फलोदी में किशनलालजी रहते थे । आतिथ्य-सत्कार (४४० mom son sonam as on e कहे कलापूर्णसूरि - २)