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"देह, मन-वचन पुद्गल थकी, कर्मथी भिन्न तुझ रूप रे; अक्षय अकलंक छ जीवनू, ज्ञान आनन्द स्वरूप रे..."
ज्ञान एवं आनन्द स्वरूप आत्मा को नहीं जानना, देह को ही आत्मा मानना ही सच्चा मिथ्यात्व है ।
* 'ज्ञानसार' में प्रथम अष्टक में पूर्णता बताई । पूर्णता अपना लक्ष्य है । पूर्णता कैसे प्राप्त हो ? पूर्णता तन्मयता से प्राप्त होगी । तन्मयता कैसे मिलेगी ? स्थिरता से मिलेगी । स्थिरता कैसे मिलेगी ? स्थिरता मोह-त्याग से मिलेगी और मोह-त्याग कैसे मिलेगा? ज्ञान से मिलेगा ।
इस प्रकार बत्तीसों अष्टकों में आपको कार्य-कारण भाव संकलित देखने को मिलेगा ।
* पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते थे - "आपको क्या बनना है ? विद्वान कि गीतार्थ ? मेरा परामर्श है कि विद्वान नहीं, गीतार्थ बनने का मनोरथ करें ।"
ध्यान के लिए आठ अंग ध्यान करने के अभिलाषी को इन आठ अंगों को बराबर जानना चाहिये । १. ध्याता - इन्द्रियों एवं मन का निग्रह करने वाली आत्मा । २. ध्यान - जिसका ध्यान करना है उसमें तल्लीनता । ३. फल - संवर एवं निर्जरा रूप । ४. ध्येय - इष्ट देव आदि । ५. यस्य - ध्यान का स्वामी । ६. यत्र - ध्यान का क्षेत्र । ७. यदा - ध्यान का समय । ८. यथा - ध्यान की विधि ।
- तत्त्वानुशासन-३७.श
(कहे कलापूर्णसूरि - २665555wwwwwwwwwws ४०३)