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समकित दर्शन ते नित नमिये, शिवपंथनुं अनुकूल ।" समकित ज्ञान एवं चारित्र का मूल है । समकित आया तो समझो - सत्य मार्ग मिल गया ।
ज्ञान चाहे जितना पढ़ो, चारित्र चाहे जितना पालन करो, परन्तु मृत्यु के समय समकित ही साथ आयेगा । चौदह पूर्वी होंगे तो चौदह पूर्व भूल जायेंगे, चारित्र चला जायेगा, परन्तु समकित साथ रहेगा ।
आत्मा के सहज आनन्द का समकित के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है ।
आत्मा से देह, कर्म, विचार आदि भिन्न है, परन्तु आनन्द भिन्न नहीं है । यह अपने साथ ही रहता है । इस आनन्द को लाने वाला समकित है ।
हमारा पुरुषार्थ उस आनन्द को लाने के लिए होना चाहिये ।
* कुदेव, कुगुरु आदि को मानना लौकिक मिथ्यात्व है, परन्तु देह को आत्मा माननी लोकोत्तर मिथ्यात्व है।
* आप भगवान भगवान कहते हैं । आगम आगम की बातें करते हैं, परन्तु ये ही भगवान हैं । ये ही इनके आगम हैं । इसका विश्वास क्या ? ऐसे प्रश्न अनेक बुद्धिजीवी उठाते हैं ।
वे कहते हैं कि ये आगम तो भगवान के एक हजार वर्षों के बाद लिखे गये । इनमें भगवान का क्या रहा ? परन्तु उन्हें पता नहीं है कि आगम लिखने वाले महापुरुष अत्यन्त भव-भीरु थै । वे एक अक्षर भी आगे-पीछे करने वाले नहीं थे । कहीं भिन्न पाठ देखने को मिले तो लिखते हैं - 'इति पाठान्तरम् ।'
ऐसे भव-भीरु महापुरुषों पर विश्वास नहीं करो तो किन पर करोगे ?
विश्वास के बिना तो धर्म में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते । धर्म में ही क्यों ? व्यवहार में भी विश्वास के बिना कहां चल सकता है ? डोक्टर, वकील, ड्राईवर, नाई आदि पर विश्वास करने वाले आप भगवान पर ही विश्वास नहीं करते । यह कैसी बात है ? धर्म की तो उत्पत्ति ही श्रद्धा में से होती है। आप जन्म स्थान को, उद्गम को ही जला दोगे तो धर्म का जन्म कैसे होगा ?
कहे
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