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________________ है । ठाणंग सूत्र में यहां तक लिखा है कि आप चाहे जितनी माता-पिता की सेवा करो तो भी उपकार का बदला नहीं चुका सकोगे । दुष्प्रतिकार हैं माता-पिता । हां, यदि आप उन्हें धर्ममार्ग की ओर उन्मुख करो तो कुछ अंशो में प्रत्युपकार कर सकते भौतिक देह को उत्पन्न करने वाले माता-पिता का इतना उपकार मानना होता है तो गुण-देह, अध्यात्म-देह के जन्म-दाता (जनक) गुरु एवं भगवान का कितना उपकार मानना चाहिये । भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता बढ़कर है । * भगवान एवं गुरु उपकार बुद्धि से हमें कुछ देना चाहते हैं, परन्तु उपमिति के उस भिखारी की तरह हम दूर भागते हैं । "भूख्याने जिम घेवर देतां, हाथ न मांडे घेलोजी" * यहां मैं जो कुछ बोलता हूं वह जमा कर नहीं बोलता, कुछ सोच कर नहीं आता, फिर भी उसमें से आपको कोई सुवाक्य मिल जाते हो, ये सुवाक्य आपकी साधना के अनुकूल लगते हों तो उन्हें ग्रहण कर लें । भगवान ने ही मुझे माध्यम बना कर वे सुवाक्य आपके पास भेजे हैं, यह मानकर उन्हें ग्रहण कर लें । भगवान अनेक रूप में हमारे पास आते हैं। कभी नाम रूप में, कभी मूर्ति के रूप में तो कभी सुवाक्यों के रूप में भी आते हैं। जिस रूप में भगवान आयें उसे स्वीकार कर लें । भगवान का यह प्रसाद शिरोधार्य करें । प्रमाद में पड़े रहोगे, अवसर खो दोगे तो यह अवसर पुनः नहीं मिलेगा। * "पर की अपेक्षा रहेगी तब तक दुःख रहेगा ।" ऐसा जब मैं कहूं तब आपके मन में कदाचित् ऐसा भी हो कि भगवान की अपेक्षा भी पर की अपेक्षा ही है न ? परन्तु याद रहे कि यहां 'पर' से पर पुद्गल लेने हैं, प्रभु को नहीं, क्योंकि प्रभु 'पर' नहीं है, अपनी ही परम चेतना का आविष्कार है । * अनेक बार कुत्तों को परस्पर लड़ते देख कर मुझे विचार आता है कि ऐसा क्यों ? बिना कारण के इस प्रकार सारा दिन क्यों लड़ते रहते होंगे ? निश्चित रूप से पूर्व जन्म में ईर्ष्यालू होंगे, झगडालूं होंगे, कर्म-सत्ता ने उन्हें कुत्ते बनाये होंगे । (३९२ Mmmmmmmmmmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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