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तो क्या दुकान बन्ध रखने से धन कमा लोगे ? दुकान खुली रखें । कभी न कभी कमा सकोगे । माला फिराते रहो, धर्मक्रिया करते रहो । कभी तो मन स्थिर बनेगा ।
अन्यथा, मन यदि सबका स्थिर हो सकता होता तो आनंदघनजी जैसे "मनडुं किमही न बाजे हो कुन्थु जिन ! मन किमही न बाजे" ऐसा न कहते ।
मन की चार अवस्थाओं में प्रथम अवस्था विक्षिप्त है । प्रारम्भ में मन विक्षिप्त ही होता है । उसके बाद ही यातायात (स्थिरअस्थिर होता रहता है ऐसी स्थिति) में आता है और उसके बाद ही सुश्लिष्ट एवं सुलीन बनता है । हम सीधे ही सुलीन अवस्था में कूदना चाहते हैं, सीधी ही चौथी मंजिल का निर्माण, बिना नींव डाले हुए ही करना चाहते हैं ।।
पच्चक्खाण, तप, पूजा आदि कुछ भी नहीं करना और सीधी निश्चय की बातें करते रहना आत्म-वंचना है ।।
मैं छोटा था । पू. आचार्य केसरसूरिजी म.सा. कृत एक पुस्तक मिली । पुस्तक सुन्दर थी । उसमें निश्चय-नय की बातें थीं । मेरे मामाजी के साथ आने वाले एक सज्जन नित्य बोलते रहते -
"मैं सच्चिदानंद आत्मा हूं । मुझे पर-द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है । पर-भाव का मैं कर्ता-भोक्ता नहीं हूं।" इस प्रकार बोलते रहते, परन्तु जीवन में कुछ नहीं ।
ऐसा कोइ निश्चय उद्धार नही कर सकता । वह केवल आपके प्रमाद का पोषण कर सकता है । प्रमाद-पोषक निश्चय से सदा सावधान रहें ।
* राजस्थान (मारवाड़) में एक वृद्धा मांजी सामायिक करते थे । द्वार खुला होने से कुत्ता भीतर आया और आंगन में रखी हुई गुड़ की भेली खाने लगा । मांजी की दृष्टि उस पर पड़ी । वे रह न सकी, परन्तु सामायिक में बोला कैसे जाये ? फिर भी बोले -
"सामायिक में समताभाव, गुड़ की भेली कुत्ता खाय । ___ जो बोलूं तो सामायिक जाय, नहीं बोलूं तो कुत्ता खाय ॥" (३७० 6000www sss s ms कहे कलापूर्णसूरि - २)