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भले अपना तन व्यवहार में हो, परन्तु निश्चय रूपी डोरी कदापि नहीं छोड़नी चाहिये । निश्चय रूपी डोरी छूट जायेगी तो आत्मघट डूब जायेगा ।
* आत्म-संप्रेक्षण की रीति - अपना अल्प दोष भी पहाड़ तुल्य मानना । दूसरो का अल्प गुण भी पहाड़ तुल्य मानना । तो ही सच्ची अनुमोदना एवं सच्ची दुष्कृत-गर्दा हो सकेगी।
गुण रूपी डोरी अत्यन्त विचित्र है । अपनी गुण रूपी डोरी यदि दूसरे पकड़ें तो वे कुंए में से बाहर निकलें, परन्तु यदि हम ही पकड़ लें तो डूब कर मर जायें ।
जो अनुमोदन के नाम पर स्व-प्रशंसा में पड़ जाते हैं, उन्हें सावधान होना है।
* कषाय नष्ट किये बिना अपनी कुशलता नहीं है। कषाय मंद हो जायें तो भी विश्वास पर बैठे न रहें । जब तक क्षायिक भाव प्रकट नहीं हो तब तक पालथी लगाकर बैठना नहीं है ।
* शत्रु का विमान, एरोड्राम पर प्रथम आक्रमण करता है, उस प्रकार मोह राजा सर्व प्रथम अपने मन पर आक्रमण करता है । मन ही अपना मुख्य स्थान है ।
कितनेक व्यक्ति कहते हैं कि माला गिनता हूं और मन भागने लगता है। अतः मैं तो माला गिनता ही नहीं । पढ़ने लगता हूं तो नींद आती है । अतः मैं तो पढ़ता ही नहीं । पूजा करने लगूं तो मन चक्कर-चक्कर घूमता है । अतः मैं तो पूजा करता ही नहीं । ऐसे आदमी चतुराई बताते हुए कहते हैं कि हम दिखावे के लिए कुछ करते ही नहीं हैं। मन लगे तो ही करना, यही हमारा सिद्धान्त है। ऐसे आदमीओं को कहें कि माला गिनने से मन चंचल नहीं हुआ । मन चंचल तो था ही, परन्तु माला गिनते (फेरते) समय आपको पता लगा कि मन चंचल है । प्रमाद तो भीतर था ही । पूजा करते समय इसका पता लगा । तो अब करना क्या ?
माला फेरते-फेरते ही कभी न कभी मन स्थिर होगा । माला फिराने से भी मन स्थिर नहीं हुआ तो नहीं फिराने से क्या स्थिर होगा ? दुकान खुली रखने से भी धन नहीं कमाया (कहे कलापूर्णसूरि - २050wwwanmasomeo ३६९)