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________________ पालिताना, वि.सं. २०५६ १६-६-२०००, शुक्रवार जेठ शुक्ला-१५ : पालीताणा * भगवान के ज्ञान में तो एक पदार्थ के अनन्त धर्म प्रकाशित हैं, परन्तु कहा जाये कितना ? अनन्त पदार्थ अनभिलाप्य (न कह सकें वैसे) हैं । अभिलाप्य (कह सकें वैसे) पदार्थों का भी अनन्तवां भाग ही भगवान कह सकते हैं । जिस दृष्टिकोण से श्रोताओं का हित होता हो, उस दृष्टिकोण को समक्ष रखकर भगवान कहते हैं । * अनन्त काल तक प्रमाद के कारण जो कर्म बांधे हों, वे कर्म अप्रमाद से हटाये जा सकते हैं । उन कर्मों को बांधने में भले ही अनन्त काल लगा हो, परन्तु उनका केवल अन्तर्मुहूर्त में क्षय किया जा सकता है । अपूर्वकरण (अपूर्व अध्यवसाय) से अनन्त काल में जो कार्य नहीं हुआ वह हो जाता है। एटम बम की तरह अपूर्वकरण अनन्त कर्मों के समूह को एक साथ उड़ा देता है । कर्मों को बांधने में जितना समय लगता है, उतना ही समय उन्हें तोड़ने में भी लगता हो, ऐसा नहीं है । मकान बनाना हो तो समय लगता है, तोड़ने में क्या समय लगेगा ? यहां कर्मों का मकान तोड़ना है। (३५६ 00wowomomomoooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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